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________________ ४० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ रूप्य निरास - बौद्ध हेतुके तीन रूप मानता है । प्रत्येक सत्य हेतुमें निम्न त्रिरूपता अवश्य ही पाई जानी चाहिए, अन्यथा वह सद्धेतु नहीं हो सकता । १. पक्षधर्मत्व — हेतुका पक्षमें रहना । २. सपक्षसत्त्व — हेतुका समस्त सपक्षोंमें या कुछ सपक्षोंमें रहना । ३ विपक्षासत्त्व हेतुका विपक्षमें बिलकुल नहीं पाया जाना । अकलंकदेव इनमें से तीसरे विपक्षासत्त्व रूपको ही सद्धेतुत्वका नियामक मानते हैं । उनकी दृष्टिसे हेतुका पक्ष में रहना तथा सपक्ष सत्त्व कोई आवश्यक नहीं है । वे लिखते हैं कि - ' शकटोदय होगा, कृतिकोदय होनेसे' 'भरणीका उदय हो चुका, कृतिकाका उदय होनेसे' इन अनुमानोंमें कृतिकोदय हेतु पक्षभूत शकट तथा भरणिमें नहीं पाया जाता। इसी तरह 'अद्वैतवादीके प्रमाण हैं, अन्यथा इष्टसाधन और अनिष्टदूषण नहीं हो सकेगा ।' इस स्थलमें जब इस अनुमानके पहिले अद्वैतवादियोंके यहाँ प्रमाण नामक धर्मीकी सत्ता ही सिद्ध नहीं है तब पक्षधर्मत्व कैसे बन सकता है ? पर उक्त हेतुओंकी स्वसाध्यके साथ अन्यथाऽनुपपत्ति ( अन्यथा - साध्यके अभाव में विपक्ष में अनुपपत्ति-असत्त्व ) देखी जाती है, अतः वे सद्धेतु हैं । info टीकाकार कर्णकगोमिने शकटोदयादिका अनुमान करानेवाले कृतिकोदयादि वैयधिकरण हेतुओं में काल या आकाशको धर्मी बनाकर पक्षधर्मत्व घटानेकी युक्तिका उपयोग किया है । अकलकदेव इसका भी निराकरण करते हुए कहा है कि - यदि काल आदिको धर्मी बनाकर कृतिकोदयमें पक्षधर्मत्व घटाया जायगा तब तो पृथिवीरूप पक्ष की अपेक्षा से महानसगतधूमहेतुसे समुद्र में भी अग्नि सिद्ध करनेमें हेतु अपक्षधर्म नहीं होगा । सपक्षसत्त्वको अनावश्यक बताते हुए अकलंकदेव लिखते हैं कि - पक्ष में साध्य और साधनकी व्याप्तिरूप अन्तर्व्याप्तिके रहनेपर ही हेतु सर्वत्र गमक होता है। पक्षसे बाहिर - सपक्ष में व्याप्ति ग्रहण करने रूप बहिर्व्याप्ति से कोई लाभ नहीं । क्योंकि अन्तर्व्याप्ति के असिद्ध रहनेपर बहिर्व्याप्ति तो असाधक ही है । जहाँ अन्तर्व्याप्त गृहीत है वहाँ बहिर्व्याप्तिके ग्रहण करनेपर भी कुछ खास लाभ नहीं है । अतः बहिर्व्याप्तिका प्रयोजक सपक्षसत्त्वरूप भी अनावश्यक है । इस तरह अन्यथानुपपत्तिको ही हेतुका व्यावर्त्तक रूप मानते हुए अकलंकदेवने स्पष्ट लिखा है कि- जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ त्रिरूपता मानने से क्या लाभ ? जहाँ अन्यथापपत्ति नहीं है वहाँ त्रिरूपता मानकर भी गमकता नहीं आ सकती । 'अन्यथानुपपन्नत्वं' यह कारिका तत्त्वसंग्रहकारके उल्लेखानुसार पात्रस्वामिकी मालूम होती है । यही कारिका अकलंकने न्यायविनिश्चयके त्रिलक्षणखण्डनप्रकरण में लिखी है । हेत्वाभास - नैयायिक हेतुके पाँच रूप मानते हैं, अतः वे एक-एक रूपके अभाव में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास मानते हैं । बौद्धने हेतुको त्रिरूप माना है, अतः उनके मतसे पक्षधर्मत्वके अभावसे असिद्ध हेत्वाभास सपक्षसत्त्व के अभाव से विरुद्ध हेत्वाभास तथा विपक्षासत्त्वके अभाव से अनैकान्तिक हेत्वाभास, इस तरह तीन हेत्वाभास होते हैं । अकलंकदेवने जब अन्यथा - नुपपन्नत्वको ही हेतुका एकमात्र नियामक रूप माना है तब स्वभावतः इनके मतसे अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव में एक ही हेत्वाभास माना जायगा, जिसे उन्होंने स्वयं लिखा है कि वस्तुतः एक ही असिद्ध हेत्वाभास है । अन्यथानुपपत्तिका अभाव कई प्रकारसे होता है अतः विरुद्ध असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिञ्चित्करके भेदसे चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं । इनके लक्षण इस प्रकार हैं १ - असिद्ध - सर्वथात्ययात् सर्वथा पक्ष में न पाया जानेवाला, अथवा सर्वथा जिसका साध्यसे अविनाभाव न हो । जैसे शब्द अनित्य है चाक्षुष होनेसे । २ - विरुद्ध - अन्यथाभावात् — साध्याभावमें पाया जानेवाला, जैसे सब क्षणिक हैं, सत् होनेसे । सत्त्वसर्वाक्षणिकत्व विपक्षभूत कथञ्चित्क्षणिकत्वमें पाया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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