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________________ २४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मुंहतोड़ उत्तर दिया है। लिखा है कि-शुन्यवाद, संवृतिवाद, विज्ञानवाद, निविकल्पकदर्शन, परमाणसंचयको प्रत्यक्षका विषय मानना, अपोहवाद तथा मिथ्यासन्तान ये सात बातें माननेवाला ही वस्तुतः जड़ है। प्रतिज्ञाको असाधन कहना, अदृश्यानुपलब्धिको अगमक कहना आदि ही अह्रीकता-निर्लज्जता है। निर्विकपकप्रत्यक्षके सिवाय सब ज्ञानोंको भ्रान्त कहना, साकार ज्ञान मानना, क्षणभङ्गवाद तथा असत्कार्यवाद ही पशताके द्योतक हैं। परलोक न मानना, शास्त्र न मानना, तप-दान देवता आदिसे इन्कार करना ही अलौकिकता है । अतीन्द्रिय धर्माधर्म आदिमें शब्द-वेदको ही प्रमाण मानना, किसी चेतनको उसका ज्ञाता न कहना ही तामस है। संस्कृत आदि शब्दोंमें साधुता, असाधुताका विचार तथा उनके प्रयोगमात्रसे पुण्य-पाप मानना ही प्राकृत-ग्रामीणजनका लक्षण है। सप्तम प्रस्तावमें-१० कारिकाएँ हैं। इसमें प्रवचनका लक्षण, सर्वज्ञतामें किये जानेवाले सन्देहका निराकरण, अपौरुषेयत्वका खंडन, तत्त्वज्ञानचारित्रकी मोक्षहेतुता आदि प्रवचन सम्बन्धी विषयोंका विवेचन है। अष्टम प्रस्तावमें-१३ कारिकाएँ हैं । इनमें सप्तभंगीका निरूपण तथा नैगमादिनयोंका कथन है । नवम प्रस्तावमें-२ कारिकाएँ हैं। इनमें प्रमाणनय और निक्षेपका उपसंहार है । ३. रचनाशैली अकलङ्कके ग्रंथ दो प्रकारके हैं-१ टीका ग्रंथ, २.स्वतन्त्र प्रकरण । टीका ग्रंथोंमें राजवातिक तथा अष्टशती है। स्वतन्त्र ग्रंथोंमें लघीयस्त्रयसविवृति, न्यायविनिश्चय सवृत्ति, सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति और प्रमाणसंग्रह ये चार ग्रंथ निश्चितरूपसे अकलंककर्तृक है। परम्परागत प्रसिद्धिकी दृष्टिसे स्वरूपसम्बोधन, न्यायचूलिका, अकलंक प्रतिष्ठापाठ, अकलंक प्रायश्चित्तसंग्रह आदि हैं, जिनके कर्ता प्रसिद्ध अकलंकदेव न होकर अन्य अकलंक हैं। राजवातिकके सिवाय प्रायः सभी ग्रंथ अष्टशती जितने ८०० श्लोक प्रमाण ही मालम होते हैं । धर्मकीतिके हेतुबिन्दु, वादन्याय, प्रमाणविनिश्चय ग्रंथ भी करीब-करीब इतने ही छोटे हैं। उस समय संक्षिप्त पर अर्थबहुल, गम्भीर तथा तलस्पर्शी प्रकरणोंकी रचनाका ही युग था। अकलंक जब आगमिक विषयपर कलम उठाते है तब उनके लेखनकी सरलता, विशदता एवं प्रसाद गुणका प्रवाह पाठकको पढ़ेनेसे ऊबने नहीं देता। राजवार्तिककी प्रसन्न रचना इसका अप्रतिम उदाहरण है। परन्तु जब वही अकलंक तार्किक विषयोंपर लिखते हैं तब वे उतने ही दुरूह बन जाते हैं । अकलंकके प्रस्तुत संस्करणमें मुद्रित प्रकरणग्रंथ अत्यन्त जटिल, गूढ़ एवं इतने संक्षिप्त हैं कि कहीं-कहीं उनका आधार लेकर टीकाकारों द्वारा किये गये अर्थ अकलंकके मनोगत थे या नहीं यह सन्देह होने लगता है। अकलंकके प्रकरणोंकी यथार्थज्ञताका दावा करनेवाले अनन्तवीर्य भी इनकी गूढ़ताके विषयमें बरबस कह उठते हैं कि "देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तं तु सर्वथा । न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥" अर्थात-"अनन्तवीर्य भी अकलंक देवके पदोंके व्यक्त अर्थको नहीं जान पाता यह बड़ा आश्चर्य है।" ये अनन्तवीर्य उस समय अकलंकके प्रकरणों के मर्मज्ञ, तलद्रष्टा समझे जाते थे । प्रभाचन्द्र एवं वादिराज अनंतवीर्यकी अकलंकीय प्रकरणोंकी तलस्पर्शिताका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-"मैंने त्रिलोकके यावत् पदार्थोंको संक्षेपरूपसे वर्णन करनेवाली अकलंककी पद्धतिको अनन्तवीर्यकी उक्तियोंका सैकड़ों बार अभ्यास करके समझ पाया है।" "अकलंकके गूढ़ प्रकरणोंको यदि अनन्तवीर्यके वचनदीप प्रकट न करते तो उन्हें कौन समझ सकता था ?" आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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