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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २३ है। न्यायविनिश्चयविवरण ( १० १६१ B. ) में 'तथा च सूक्तं चो देवस्य वचनम्' कहकर 'समारोपव्यवच्छेदात्"..' श्लोक उद्धृत मिलता है । बहत कुछ सम्भव है कि इसी विवृतिरूप गद्यभागका ही विवरणकारने णि शब्दसे उल्लेख किया हो । न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराजने न्याय विनिश्चयके केवल पद्यभागका व्याख्यान किया है। प्रमाणसंग्रह-पं० सुखलालजीकी कल्पना है कि-'प्रमाणसंग्रह नाम दिग्नागके प्रमाणसमुच्चय तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहका स्मरण दिलाता है। यह कल्पना हृदयको लगती है। पर तत्त्वसंग्रहके पहिले भी प्रशस्तपादभाष्यका पदार्थसंग्रह नाम प्रचलित रहा है। संभव है कि संग्रहान्त नामपर इसका भी कुछ प्रभाव हो। जैसा कि इसका नाम है वैसा ही यह ग्रन्थ वस्तुतः प्रमाणों-युक्तियोंका संग्रह ही है । इस ग्रन्थकी भाषा और खासकर विषय तो अत्यन्त जटिल तथा कठिनतासे समझने लायक है। अकलंकके इन तीन ग्रन्थोंमें यही ग्रन्थ प्रमेयबहुल है। मालम होता है कि यह ग्रन्थ न्यायविनिश्चयके बाद बनाया गया है। क्योंकि इसके कई प्रस्तावोंके अन्तमें न्यायविनिश्चयकी अनेकों कारिकाएँ बिना किसी उपक्रम वाक्यके लिखी गई है । इसकी प्रौढ़शैलीसे ज्ञात होता है कि यह अकलंकदेवकी अन्तिम कृति है, और इसमें उन्होंने अपने यावत् अवशिष्ट विचारोंके लिखनेका प्रयास किया है, इसलिए यह इतना गहन हो गया है। इसमें हेतुओंके उपलब्धि अनुपलब्धि आदि अनेकों भेदोंका विस्तत विवेचन है। जबकि न्यायविनिश्चयमें मात्र उनका नाम ही लिया गया है। अतः यह सहज ही समझा जा सकता है कि-यह न्यायविनिश्चयके बाद बनाया गया होगा। इसमें ९ प्रस्ताव है, तथा कुल ८७।। कारिकाएँ । प्रथम प्रस्तावमें-९ कारिकाएँ है। इनमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्ष विषयक निरूपण है।। द्वितीय प्रस्ताव में-९ कारिकाएँ हैं। इनमें स्मतिका प्रामाण्य, प्रत्यभिज्ञानकी प्रमाणता, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका संभव, परोक्ष पदार्थों में श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका वर्णन है । अर्थात् परोक्षके भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कका निरूपण है। । प्रस्तावमें-१० कारिकाएँ हैं। इनमें अनुमानके अवयव साध्य-साधनका लक्षण, साध्याभासका लक्षण, सदसदेकान्तमें साध्यप्रयोगकी असंभवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तुकी साध्यता तथा उसमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषोंका परिहार आदिका वर्णन है। चतुर्थ प्रस्तावमें-११॥ कारिकाएँ हैं । इनमें त्रिरूपका खंडन करके अन्यथानुपत्तिरूप हेतुलक्षणका समर्थन, हेतुके उपलब्धि, अनुपलब्धि आदि भेदोंका विवेचन, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचरहेतुका समर्थन आदि हेतु-सम्बन्धी विचार है। पंचम प्रस्तावमें-१०॥ कारिकाएँ हैं। इनमें विरुद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, सर्वथा एकान्तमें सत्त्वहेतुकी विरुद्धता, सहोपलम्भनियमहेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका विरुद्धमें अन्तर्भाव, अज्ञात हेतृका अकिञ्चित्करमें अन्तर्भाव आदि हेत्वाभास विषयक प्ररूपण है, तथा अन्तर्व्याप्तिका समर्थन है। षष्ठ प्रस्तावमें-१२॥ कारिकाएँ हैं। इनमें वादका लक्षण, जयपराजय व्यवस्थाका स्वरूप, जातिका लक्षण, दध्यष्टत्वादिके अभेदप्रसंगका जात्युत्तरत्व, उत्पादादित्रयात्मकत्वसमर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करनेमें सत्त्वहेतका सिद्धसेनादिके मतसे असिद्धत्वादिनिरूपण आदि वादविषयक कथन है। अन्तमें-धर्मकीर्ति आदिने अपने ग्रन्थोंमें प्रतिवादियोंके प्रति जिन जाड्य आदि अपशब्दोंका प्रयोग किया है उनका बहत सन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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