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अकलङ्कग्रन्थत्रय और उसके कर्ता
ग्रन्थकार आचार्य अकलङ्कदेव
श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेव की जीवनगाथा न तो उन्होंने स्वयं हो लिखो है और न तन्निकटसमयवर्ती किन्हीं दूसरे आचार्योंने हो । उपलब्ध कथाकोशों में सबसे पुराने हरिषेणकृत कथाकोशमें समन्तभद्र और अकलंक जैसे युगप्रधान आचार्योंकी कथाएँ ही नहीं हैं । हरिषेणने स्वयं अपने कथाकोशका समाप्तिकाल शकसंवत् ८५३ ( ई० ९४१) लिखा है । प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें अकलंककी कथा मिलती है। पं० नाथूरामजी प्रेमी इसका रचनाकाल विक्रमको चौदहवीं सदी अनुमान करते हैं । प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशको ही ब्रह्मचारी नेमिदत्तने विक्रमसंवत् १५७५ के आसपास पद्यरूपमें परिवर्तित किया है । देवचन्द्रकृत कनड़ी भाषाकी 'राजावलीकथे' में भी अकलंककी कथा है। इसका रचनाकाल १६वीं सदीके बाद है । इस तरह कथाग्रन्थों में चौदहवीं सदी से पहिलेका कोई कथाग्रन्थ नहीं मिलता जिसमें अकलंकका चरित्र तो क्या निर्देश तक भी हो । अकलंकदेवके ६०० वर्ष बादकी इन कथाओंका इतिवृत्तज्ञ विद्वान् पूरे-पूरे रूपमें अनुसरण नहीं करते हैं । इनके सिवाय अकलंकके शास्त्रार्थका उल्लेख मल्लिषेणप्रशस्ति में है । यह प्रशस्ति विक्रमसंवत् ११८५ में लिखी गई थी । अकलंकके पिताका नाम राजवार्तिक प्रथमाध्यायके अन्त में आए हुए 'जीयाच्चिर' श्लोक में 'लघुहब्व' लिखा हुआ है। इस तरह अकलंकके जीवनवृत्तकी सामग्री नहीं वत् है । जो है भी वह इतनो बाद की है कि उसपर अन्य प्रबल साधक प्रमाणों के अभाव में सहसा जोर नहीं दिया जा सकता ।
पं० नाथूरामजी प्रेमीने कथाकोश आदिके आधारसे जैनहितैषी ( भाग ११ अंक ७-८ ) में अकलंक - देवका जीवन वृत्तान्त लिखा है । उसीके आधारसे न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना में भी बहुत कुछ लिखा गया है । यहाँ मैं उसका पिष्टपेषण न करके सिर्फ उन्हीं मुद्दोंपर कुछ विचार प्रकट करूँगा, जिनके विषय में अभी कुछ नया जाना गया है तथा अनुमान करनेके लिए प्रेरकसामग्री संकलित की जा सकी है। खासकर समयनिर्णयार्थ कुछ आभ्यन्तर सामग्री उपस्थित करना ही इस समय मुख्यरूपसे प्रस्तुत है; क्योंकि इस दिशा में जैसी गंजाइश है वैसा प्रयत्न नहीं हुआ ।
१. जन्मभूमि- पितृकुल
प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोश तथा उसीके परिवर्तितरूप ब्रह्मचारी ने मिदत्तके आराधनाकथाकोशके लेखानुसार अकलंकका जन्मस्थान मान्यखेट नगरी है। वे वहाँके राजा शुभतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तमके ज्येष्ठ पुत्र थे । श्री देवचन्द्रकृत कनड़ी भाषाके राजावलीकथे नामक ग्रन्थमें उन्हें काञ्चीके जिनदास ब्राह्मणका पुत्र बताया है। इनकी माताका नाम जिनमती था। तीसरा उल्लेख राजवार्तिकके प्रथम अध्यायके अन्त में पाया जाने वाला यह श्लोक है-- "जीयाच्चिरमकलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनयः ।
अनवरतनिखिलजन नुतविद्यः
प्रशस्तजनहृद्यः ॥"
इस इलोकके अनुसार वे लघुहव्व राजाके वरतनय - ज्येष्ठ पुत्र थे । विद्वानोंकी आजतककी पर्यालोचनासे ज्ञात होता है कि वे राजावलीकथेका वर्णन प्रमाणकोटिमें नहीं मानते और कथाकोशके वर्णनकी अपेक्षा उनका झुकाव राजवार्तिकके श्लोककी ओर अधिक दिखाई देता है ।
मुझे तो ऐसा लगता है कि -लघुहब्व और पुरुषोत्तम एक ही व्यक्ति हैं। राष्ट्रकूटवंशीय इन्द्रराजद्वितीय तथा कृष्णराज प्रथम भाई-भाई थे । इन्द्रराज द्वितीय का पुत्र दन्तिदुर्गद्वितीय अपने पिता की मृत्यु के बाद राज्याधिकारी हुआ । कर्नाटक प्रान्तमें पिताको अव्व या अप्प शब्दसे कहते हैं । सम्भव है कि दन्तिदुर्ग अपने
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