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भारत का भविष्य
जो पूंजी और संपत्ति को इकट्ठा करके शोषक बन कर बैठ गए हैं। आजादी की लड़ाई परदेसी के खिलाफ थी। समानता की लड़ाई अपने ही उन लोगों के खिलाफ होगी जो शोषक हैं। यह लड़ाई बुनियादी रूप से भिन्न होगी। और ध्यान रहे कि गांधी अंग्रेज को तो अहिंसा के रास्ते से झुका सके, लेकिन भारतीय पूंजीपति को अहिंसा के रास्ते से झुकाना मुश्किल मालूम पड़ता है। ये भारतीय बहुत होशियार हैं। ये अहिंसा-वहिंसा की तरकीब में फंसने वाले नहीं हैं। इन पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। चालीस साल की गांधी की पूरी जिंदगी में एक पूंजीपति राजी नहीं हो सका ट्रस्टीशिप के लिए! तो अब गांधीवादियों की हिम्मत है कि ये ट्रस्टीशिप के लिए राजी कर लेंगे लोगों को? गांधी जो नहीं कर पाए, वह गांधीवादी कर लेंगे? गांधी जहां असफल हो गए, वह गांधीवादी कर लेंगे? कहां गांधी, कहां बेचारे छुठभइए गांधीवादी, इनका क्या संबंध हो सकता है? ये क्या कर पाएंगे? इनसे कुछ भी नहीं हो सकता, लेकिन ये नारे दोहराते रहेंगे और नारे दोहराने के पीछे पूंजी का तंत्र जारी रहेगा, शोषण का तंत्र जारी रहेगा। अगर गांधी वापस लौटे तो शायद उनके सामने पहला सवाल होगा कि भारत समान कैसे हो। गांधी की बात को मान कर उनके एक शिष्य, एक बहुत प्यारे आदमी, एक बहुत सज्जन व्यक्ति विनोबा उनकी बात को मान कर काम में लगे हैं। लेकिन उनके काम से हिंदुस्तान में समाजवाद नहीं आ रहा, बल्कि आने वाले समाजवाद के मार्ग में बाधा पड़ी। उनका भूदान उनकी सदभावना का तो प्रतीक है, लेकिन उनकी बहुत गहरी समाज को समझने की अंतर्दृष्टि का नहीं। दान वगैरह से गरीब को थोड़ी राहत मिल सकती है लेकिन शोषण का तंत्र नहीं बदलता। दान से थोड़ी-बहुत गरीबी को गरीबी सहने में सुविधा मिल सकती है, लेकिन गरीब जितने दिन तक गरीबी सहता है उतने दिन तक ही शोषण को बदलने की क्रांति की उसकी तैयारी में बाधा पड़ती है। और गरीब को दान इत्यादि से ऐसा मालूम होने लगता है कि यह पूंजीवाद भी बहुत अच्छा वाद है, हमें जमीन भी देता है, रोटी-रोजी भी देता है, कपड़े भी देता है, ये पूंजीपति बड़े अच्छे लोग हैं। और पूंजीवाद की जो रुग्ण और विकृत
और कुरूप जीवन-व्यवस्था है उसमें भी उसे राहत मिलने लगती है, सांत्वना मिलने लगती है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि गांधी जिंदा होते तो भूदान की इस अंतिम परिणति का उन्हें बोध न हो जाता। लेकिन विनोबा को वह बोध नहीं हो सका है। गांधी के पास एक बहुत गहरी अंतर्दृष्टि थी, शायद विनोबा के पास उतनी गहरी अंतर्दृष्टि नहीं है। शिष्यों के पास गुरुओं जैसी अंतर्दृष्टि होती भी नहीं। अगर हो तो वे शायद ही किसी के शिष्य होने को तैयार हों। वे खुद ही दूर हो जाते हैं। आजादी के बाद हिंदुस्तान के सारे अच्छे लोग भूदान और सर्वोदय के काम में लग गए। उनका खयाल था इससे समाजवाद आ जाएगा। मैं आपसे कहना चाहता हूं, सर्वोदय से समाजवाद नहीं आ सकता, समाजवाद से सर्वोदय जरूर आ सकता है। इसे मैं फिर दोहराऊं, सर्वोदय से समाजवाद नहीं आ सकता, क्योंकि जब तक समाज श्रेणियों में विभक्त है तब तक सर्वोदय की बात ही व्यर्थ है। सबका उदय कैसे हो सकता है? जहां पूंजी है, जहां पूंजीपति है, जहां शोषण है, जहां शोषित है, जहां दीन-हीन दरिद्र हैं और जहां धन के अंबार हैं इन दोनों का एक साथ उदय कैसे हो सकता है? इन दोनों के एक साथ उदय का कोई भी अर्थ नहीं है। इन दोनों के एक साथ उदय का अर्थ पूंजीपति का ही उदय होगा। हम भेडों को भेडियों के साथ पालें और कहें कि दोनों का उदय होगा तो भेडियों का उदय
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