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भारत का भविष्य
बीस साल में तीन सौ करोड़ रुपये की आमदनी! मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी एक परिवार ने कभी भी न अमेरिका में न कहीं और इतनी आमदनी बीस वर्षों में इकट्ठी की! तीन सौ करोड़ रुपया बीस वर्षों में! प्रतिवर्ष पंद्रह करोड़ रुपया! प्रतिमाह चार लाख से, सवा करोड़ से ज्यादा रुपया! प्रतिदिन चार लाख से ज्यादा रुपया! गांधी को खयाल आ जाता कि आजादी किसके हाथ में गई है। गरीब हिंदुस्तान को, असली हिंदुस्तान को, आजादी जरा भी नहीं मिली, कुछ भी प्रयोजन नहीं हुआ। सिर्फ इतना हुआ कि अंग्रेज पूंजीपति के हाथ से हिंदुस्तानी पूंजीपति के हाथ सत्ता का हस्तांतरण हो गया। गांधी इसके लिए नहीं लडे थे...भला आदमी जो भल करता है वह उन्होंने भी की। उनको भी यह खयाल था कि पंजी का यह राज, पूंजीपति का यह शोषण, समझाने-बुझाने से हल हो सकता है। वह हल नहीं हुआ। और वह हल नहीं होगा। और अब लोकतंत्र के नाम पर उसे निरंतर चलाए जाने की कोशिश की जा रही है। हिंदुस्तान में तब तक सही लोकतंत्र निर्मित नहीं हो सकता है जब तक हिंदुस्तान में आर्थिक समानता की हम कोई व्यवस्था आयोजित नहीं कर लेते। आर्थिक रूप से समान हुए बिना लोकतंत्र एक धोखा है, एक सरासर धोखा है। जहां गरीब और अमीर का भारी विभाजन हो, जहां संपत्तिशाली और संपत्तिहीनों के बीच करोड़ों का फासला हो, वहां लोकतंत्र सिर्फ नाम है, लोकतंत्र के पीछे धनपति का ही तंत्र होना सुनिश्चित है। हिंदुस्तान में लोकतंत्र तभी हो सकता है जब हिंदुस्तान एक समाजवादी जीवन-व्यवस्था को स्वीकार करे। उसके पहले हिंदुस्तान में लोकतंत्र एक आत्मवंचना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समानता आए बिना वास्तविक स्वतंत्रता और लोकतंत्र निर्मित होते भी नहीं है। इसलिए मैंने जब अभी पीछे कहीं कहा कि हिंदुस्तान को अभी एक सर्वहारा के, अधिनायक तंत्र की जरूर एक डिक्टेटरशिप प्रालिटेरियन की जरूरत है। तो मुझे चारों तरफ से गालियां मिलीं कि मैं लोकतंत्र का दुश्मन मालूम होता हूं। लोकतंत्र है ही नहीं, उसके दुश्मन होने का उपाय भी नहीं है। लोकतंत्र होता तो हम दुश्मन भी हो सकते थे, लेकिन लोकतंत्र है कहां? अमीर के तंत्र का नाम लोकतंत्र है! कितने हैं अमीर? वह जो बड़ा लोग-समुदाय है उसका कौन सा तंत्र है? उसका तंत्र हो कैसे सकता है? । लेकिन जब भी पूंजीपति की व्यवस्था को और शोषण को हटाने की बात की जाए, तो सवाल उठता है कि लोकतंत्र में दबाव कैसे डाला जा सकता है! लोकतंत्र में दबाव डालना तो गलत हो जाएगा। लेकिन मैं यह पूछता हूं कि चोरों पर आप दबाव नहीं डालते कि चोरी मत करो, हत्यारों पर दबाव नहीं डालते कि हत्या मत
करो।
हत्यारे और चोर नहीं कल कहेंगे कि हमारा लोकतंत्र छीना जा रहा है, हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छिनी जा रही है, हम चोरी करना चाहते हैं हमें चोरी करने दी जाए। लेकिन चोर के लिए तलवार है और शोषक के लिए तलवार नहीं हो सकती? शोषक के लिए तलवार की जब बात उठती है तब अहिंसा और लोकतंत्र बीच में खड़े हो जाते हैं। और हत्यारे और चोर के लिए? नहीं, उसके लिए लोकतंत्र का सवाल नहीं है। उसके लिए सत्ता अधिनायकशाही का उपयोग करती है। सच बात यह है कि हमने अब तक यह नहीं समझा कि शोषक चोर से भी ज्यादा खतरनाक है।
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