________________
भारत का भविष्य
हम पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के कम से कम बुद्धिमान वर्ग को निकट लाने का उपाय करें। उनकी समझ एक-दूसरे के बाबत बढ़े। तो अंडरस्टैडिंग जितनी बढ़े, अगर हम वृद्ध पीढ़ी की कठिनाई समझ सकें, उनकी कठिनाइयां हैं, उनकी कठिनाइयों का अंत नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ जिद की वजह से अपनी पुरानी बातें बदलने को राजी नहीं हैं। अगर कोई ऐसा कहता है तो जरा जल्दी में कहता है। उनकी अपनी कठिनाइयां हैं। और पुरानी बातों पर रुकने के उनके अपने कारण हैं। उनके हजार अनुभव उन्हें कहते हैं कि जो बार-बार परीक्षित किया गया है उसी से चलना उचित है । उनका अगर हम पूरा भाव समझें, उनके अनुभव समझें, उनकी स्थिति, उनका आउट लुक समझें, तो नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के प्रति रिबेलियस नहीं रह जाएगी, सिम्पैथिटिक हो जाएगी।
इतना ही हो सकता है, अनुगामी अब नहीं हो सकता । अब नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की अनुगामी कभी नहीं हो सकेगी। वह इंपासिबल आकांक्षा है। सिम्पैथिटिक, सहानुभूति पूर्ण हो जाए इतना जरूरत से काफी है, जरूरत से ज्यादा है। और पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी की तरह चुस्त कपड़े पहन कर सड़क चलने लगेगी ऐसा भी मैं नहीं मानता हूं, जरूरत भी नहीं है, उचित भी नहीं है। लेकिन पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के भविष्य के प्रति रिजिड न रह जाए, सख्त न रह जाए, ढांचे को बुरी तरह थोपने के लिए आतुर न रह जाए, इतनी संवेदना भर आ जाए तो काफी है।
और मैं नहीं मानता कि यह बहुत कठिन है । कोई बाप अपने बेटे को बिगाड़ने को उत्सुक नहीं है। और अगर बिगाड़ता भी है तो बनाने की आकांक्षा में ही बिगाड़ता है। और अगर कभी उसे पता चल जाए कि वह जो ढांचे थोप रहा है वे गलत हो गए हैं, अब वे सार्थक नहीं हैं। तो वह ढांचे थोपने के लिए तैयार नहीं होगा। और कोई बेटा अपने बाप को दुख पहुंचाने के लिए आतुर नहीं होता। लेकिन वह जो करता है उससे जाने-अनजाने दुख पहुंच जाता है। काश उसे पता चल जाए और ये सारी चीजें साफ हो जाएं, तो हमारी सहानुभूति बढ़े, तो हम निकट आ सकते हैं।
पूछा है, फासला कैसे कम हो ? सहानुभूति कैसे बढ़े ? उससे फासला कम होगा। और सहानुभूति बिलकुल सूखती जा रही है। क्योंकि हम एक-दूसरे को जब तक न जानें, तब तक सहानुभूति हो भी नहीं सकती। तो कभी हमें इन दोनों पीढ़ियों को निकट लाएं और कभी इन दोनों पीढ़ियों को एक-दूसरे की जगह बिठालने की भी कोशिश करें। जैसे बूढ़ी पीढ़ी को यहां बुलाएं और उनसे कहें कि आप बूढ़ी पीढ़ी के खिलाफ बोलें। और नई पीढ़ी को बुलाएं और उससे कहें कि यहां तुम नई पीढ़ी के खिलाफ क्या-क्या बोल सकते हो वह बोलो। एक-दूसरे के जूतों में खड़े करने की भी जरूरत है। तभी हमें पता चलता है कि दूसरे के जूते में कांटा चुभ रहा है।
हमें पता ही नहीं चलता कि दूसरे के जूते में क्या तकलीफ है ? उसके जूते में पैर डालना पड़ता है। बच्चों को बूढ़े की जगह थोड़ा खड़ा करना पड़ेगा, बूढ़ों को बच्चों की जगह थोड़ा खड़ा करना पड़ेगा। और शिक्षण संस्थाएं यह प्रयोग कर सकती हैं। और अभी देर नहीं हो गई, अभी सिर्फ शुरुआत है पागलपन की, अगर यह बढ़ता चला गया तो बहुत देर हो जाएगी। और फिर सुधारना रोज कठिन होता चला जाएगा।
Page 71 of 197
http://www.oshoworld.com