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________________ भारत का भविष्य खिलाने की कोशिश की तो जिन फूलों की जड़ें हमारे पास नहीं हैं, क्योंकि अगर पश्चिम के पास अरस्तू की बुद्धि है, सुकरात का तर्क है, कांट और हिगल और फ्यूरवाक और मार्क्स और रसल की समझ है, तो हमारे पास बहुत दूसरे तरह के लोगों की हमारे खून में धाराएं हैं। बुद्ध सुकरात जैसे आदमी नहीं हैं। महावीर कांट जैसा व्यक्तित्व नहीं हैं। रामकृष्ण, नानक, कबीर, मीरा, ये हिगल और कांट और मार्क्स जैसे लोग नहीं हैं। हमारे पास और ही तरह की जड़ें हैं। तो अगर हमने पश्चिम का फूल ठीक पश्चिम की नकल में खिलाना चाहा तो वह प्लास्टिक का फूल होगा, असली फूल नहीं हो सकता। वह बाजार से खरीदा गया कागज का फूल होगा। इसलिए जब कोई भारतीय आदमी ठीक पश्चिमी हो जाता है तो एकदम कागजी हो जाता है। उसकी जिंदगी में सिर्फ कागज होते हैं। वे सब ऊपर-ऊपर होते हैं। मेरे एक मित्र जर्मनी में थे बीस वर्षों से। वे हिंदी भाषा बोलना भूल गए। जर्मन ही उनकी मातृभाषा हो गई। वे यहां आते थे तो हिंदी समझ भी नहीं पाते थे। बहुत छोटे थे तब जर्मनी गए, मुश्किल से नौ साल के थे। स्वभावतः जर्मन भाषा उनके प्राणों में भर गई। फिर पिछले वर्ष एक बड़ी अजीब घटना घटी कि वे बीमार हो गए। और बीमारी इतनी घातक हुई कि वे कोमा में, बेहोशी में चले गए। तो उनके भाइयों को यहां से जर्मनी जाना पड़ा। अस्पताल में उनके भाइयों को रुकने के लिए आज्ञा न थी। दिन भर साथ रहते रात छोड़ देते। लेकिन डाक्टरों ने कहा कि रात बड़ी अजीब हालत होती है, कभी-कभी आपका भाई होश में आ जाता है तो न मालूम किस भाषा में बोलने लगता है, जिसे हम समझ नहीं पाते। तो आप रुकें। बड़ी हैरानी की बात, रात जब वह बेहोशी उनकी टूटती तो वे हिंदी में बोलने लगते। वह जो बीस साल में भी सीखा है ऊपर से, वह भी प्राणों के बहुत गहरे में नहीं जा पाता। जब वे बेहोशी में बड़बड़ाते तो हिंदी में और जब होश में बोलते तो जर्मन में। वह जो प्राणों के गहरे में जड़ें हैं वे वहां होती हैं। मेरे एक मित्र मुझे लिखते थे कि दूसरे मुल्क में जाकर एक बड़ी कठिनाई होती है, वह कठिनाई साधारणतः अनुभव नहीं आती, अगर किसी के प्रेम में पड़ जाओ तो दूसरे की भाषा में बोलना बहुत कठिन हो जाता है या किसी से झगड़ा हो जाए तो भी दूसरे की भाषा में बोलना बहुत कठिन हो जाता है। दुकान चलानी हो, काम चलाना हो, चल जाता है, लेकिन प्रेम और झगड़े में, लगता है अपनी ही भाषा में बोला जाए। एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि राजाभोज के दरबार में एक पंडित आया। और वह पंडित तीस भाषाएं बोलता था। और इस भांति बोलता था कि लगता था प्रत्येक भाषा उसकी मातृ-भाषा है। बड़ी कठिन उपलब्धि है। उसने चैलेंज, उसने चुनौती की राजाभोज के दरबारियों को कि तममें से अगर कोई मेरी मातृ-भाषा पहचान ले तो मैं लाख स्वर्ण मुद्राएं भेंट करूंगा। और अगर नहीं पहचान पाया प्रतियोगी तो उसे दो लाख स्वर्ण मुद्राएं मुझे देनी पड़ेंगी। राजाभोज के लिए बड़े अपमान की बात थी। भाषा बोलना तो दूर, उसकी भाषा पहचानने के लिए उसने यह चुनौती दी थी। भोज के दरबार के पंडित रोज हारने लगे, वह रोज भाषाएं बोलता और जो भी भाषा मातृ-भाषा बताई जाती वह कहता कि नहीं। कालिदास चप थे। भोज ने कहा कि तम प्रतियोगिता में उतरो अन्यथा हार निश्चित है। कालिदास ने कहा, मैं तैयारी कर रहा हूं। आखिरी पंडित भी हार गया। Page 65 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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