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भारत का भविष्य
जिनसे उसे पता लगता है। नेता जनता को समझा रहा है और पूरे वक्त जान रहा है कि कोई नहीं समझ रहा और जनता भी पूरे वक्त सुन रही है और समझ रही है कि नेता जो कह रहा है इसका इसकी जिंदगी से कोई संबंध नहीं है। बाप बेटे को समझा रहा है, बेटे समझ रहे हैं कि बेईमान है, पाखंडी है। बेटे बाप को आश्वासन दे रहे हैं, बाप जान रहा है यह सब धोखे की बात है, यह पीछे जाकर अभी आश्वासन तोड़ देगा। जब किसी मुल्क की जिंदगी में ऐसी घटना घट जाए, जहां कि हमें किसी एक-दूसरे की भाषा पर भी भरोसा न रह जाए, तो उस मुल्क को हमें सेन नहीं मानना चाहिए, वह इनसेन हो गया, एक पागलपन पकड़ गया है। इस पागलपन को तोड़ना जरूरी है। अन्यथा हम बड़ी अजीब हालतों में रोज उलझते चले जाएंगे। समस्याएं जिनको दिखाई पड़ती हैं उन्हें समाधान नहीं दिखाई पड़ता, जिन्हें समाधान दिखाई पड़ता है उन्हें कोई समस्याएं दिखाई नहीं पड़तीं। बूढ़ों के पास समाधान है लेकिन उन्हें समस्याएं दिखाई नहीं पड़तीं। बच्चों के पास समस्याएं हैं लेकिन उन्हें समाधान दिखाई नहीं पड़ते। किन्हीं के पास पैर हैं, किन्हीं के पास आंखें हैं, दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है। इससे हम अनेक तलों पर मल्टी डायमेंशनल न मालूम कितने आयामों में कितनी दिशाओं में कितने सवाल खड़े कर लिए हैं। इन सारे सवालों को मिटाने के लिए एक तो सुझाव मैं देना चाहता हूं वह यह है और मैं समझता हूं कि वह युवकों को ही सुझाव शुरू करना पड़ेगा। क्योंकि बूढ़े कई अर्थों में रिजिड हो जाते हैं। स्वभावतः जब हम भी बूढ़े हो जाएंगे तो हम भी रिजिड हो जाएंगे। आज जो बच्चे हैं कल जब बूढ़े हो होंगे वे भी रिजिड हो जाएंगे। बुढ़ापा रिजिडिटी लाता है। असल में बुढ़ापे का मतलब ही रिजिडिटी है। हड्डियां ही सख्त नहीं होती दिमाग की नसें भी सख्त हो जाती हैं। हाथ-पैर ही कड़े नहीं हो जाते, विचार भी कड़े हो जाते हैं। शरीर ही मरने के करीब नहीं पहुंच जाता, भीतर का सारा व्यक्तित्व भी सख्त हो कर सूख जाता है और मरने के करीब पहुंच जाता है। इसलिए बूढ़े आदमी से बहुत ज्यादा आशा नहीं की जा सकती है। अगर जिस डायलाग की मैं बात कर रहा हूं उसको अगर पैदा करना है तो हिंदुस्तान के युवकों को ही उसको फेस करना पड़ेगा। हिंदुस्तान के युवक को ही कोशिश करके हिंदुस्तान के बूढ़े से संबंध स्थापित करना पड़ेगा।
और एक बात तो यह भी ठीक है कि बूढ़े को चिंता भी ज्यादा नहीं हो सकती, क्योंकि भविष्य बूढ़े का नहीं है, भविष्य जवानों का है। अगर चिंता भी होनी चाहिए तो जवानों को होनी चाहिए, क्योंकि कल उनको जीना होगा इस मुल्क में, कल इस मुल्क में बूढ़ों को नहीं जीना होगा। वे अपने कब्रिस्तानों में और अपने कब्रगाहों में चले गए होंगे। उनके लिए बहुत चिंता का कारण भी नहीं है। चिंता का कारण होना चाहिए युवकों के लिए। लेकिन बड़े मजे की बात है कि युवक बिलकुल चिंतित मालूम नहीं पड़ते, बूढ़े बहुत चिंतित मालूम पड़ते हैं। युवक ऐसे निश्चित जी रहे हैं जैसे कि बूढ़ों का कोई भविष्य है, उनको परेशान होने की कोई जरूरत है। विद्यार्थी इस तरह जी रहे हैं जैसे कि शिक्षकों की सारी मुसीबत है। नहीं, पिछली पीढ़ी की कोई भी मुसीबत नहीं है, पिछली पीढ़ी विदा हो जाएगी। आने वाली सारी मुसीबतें नई पीढ़ी पर होंगी। और अगर नक्सलाइट ढंग से सोचने वाले युवक सोचते हों कि हम बूढ़ों से लड़ रहे हैं, तो वे गलती में हैं। वे अपने ही भविष्य को नष्ट करने के लिए लड़ रहे हैं। क्योंकि बूढ़ों से लड़ने का क्या मतलब है?
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