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भारत का भविष्य
गांधी जी की नजर कुल इतनी है कि वह बड़ा यंत्र जो व्यक्तियों के ऊपर हावी हो जाता है उसके खिलाफ हैं। वे ऐसा यंत्र चाहते हैं जिस पर व्यक्ति हावी रहे। इसमें मेरा मानना है कि गांधी जी की मनुष्य की आत्मा में बहुत कम भरोसा है। उनका चित्त आदमी में बहुत कम भरोसे वाला है। क्योंकि वे मानते हैं बड़ा यंत्र आदमी पर हावी हो जाएगा। उनको आदमी की आत्मा जो है बहुत छोटी मालूम पड़ती है । बहुत कम हिम्मतवर नपुंसक मालूम पड़ती है, एक। दूसरी बात, गांधी जी जो यंत्र दे रहे हैं । यह हो सकता है कि एक आदमी को तीस गज कपड़ा मिल जाए। यह हो सकता है, यह बहुत कठिन नहीं। अगर एक आदमी गांधी जी के चरखे को ही चलाता रहे तो तीस गज कपड़ा मिल सकता है। लेकिन विकास मल्टी डायमेंशनल है। जो आदमी छह घंटे चरखा चला कर तीस गज कपड़ा पा लेगा या चार घंटे चला कर तीस गज कपड़ा पा लेगा। चार घंटे चरखा चलाने में उसने कितना खोया उसका हिसाब आपको नहीं है। अगर मेरा बस चले तो गांधी जी को सजा करवा देनी चाहिए कि तुमको हम चरखा नहीं चलाने देंगे, क्योंकि गांधी जैसा आदमी दो घंटे चला कर मुल्क का कितना नुकसान पहुंचा रहा है इसका हमें कुछ पता नहीं है।
गांधी जैसी हैसियत की प्रतिभा का आदमी दो-तीन घंटे चरखे के साथ उलझा रहे, इन तीन घंटों में इस प्रतिभा का हम कितना उपयोग कर सकते थे और कितना हमने सूत पैदा किया? यह सूत और इस प्रतिभा के उपयोग का कोई संबंध नहीं जुड़ता । यह जो दो-तीन मालाएं सूत की बन जाएंगी, यह गांधी जी के तीन घंटे श्रम का हम फायदा लेंगे, तो आप समझ लेना कि आप गरीब रहेंगे। उसके कारण हैं। सच बात तो यह है कि मनुष्य का विकास इससे होता है कि वह अपने समय, समझ और श्रम का कितना इकॉनामिक उपयोग करता है। आप कितने कम समय में कितना ज्यादा पैदा करते हैं इससे आपके विकास की संभावना बढ़ती है। गांधी जी के जो साधन हैं वे ज्यादा समय में बहुत कम पैदा करवाने वाले हैं। इसलिए मैं उनके खिलाफत में हूं। मैं रचनात्मक नहीं मानता, विध्वंसात्मक मानता हूं। गांधी जी के सब साधन डिस्ट्रक्टिव हैं। उनमें रचना नहीं है, विध्वंस हैं। लेकिन दिखाई हमें यह पड़ता है कि अगर मैं छह घंटे बैठ कर चरखा चलाता रहूं तो आपको भी दिखाई पड़ेगा कि सूत तो पैदा हुआ लेकिन छह घंटे से मैं जो पैदा कर सकता था वह पैदा नहीं हुआ। वह आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। और मुझे एक गधा - पचीसी में लगाया कि छह घंटे में सूत पैदा करूं, जो कि एक मशीन कर देगी जिसमें मेरी जरूरत ही नहीं।
मेरे छह घंटे बच सकते थे जिनका मैं उपयोग कर रहा हूं। मनुष्य की सारी संस्कृति, मनुष्य के लीजर टाइम का विकास है। जो भी कौमें संस्कृत हुई हैं और जो भी सभ्यता विकसित हुई है वह खाली समय में विकसित हुई है। खाली समय कितना आदमी के पास है, इससे निर्भर करेगा कि वह कितना विकसित होता है। अगर गांधी जी की पूरी व्यवस्था अगर हम मानें, तो साबुन अपनी खुद बना लेनी चाहिए, अपना खाना खुद पैदा कर लेना चाहिए, अपना कपड़ा खुद बना लेना चाहिए। तो मैं मानता हूं कि अगर एक आदमी इस व्यवस्था को स्वीकार कर ले, तो सिर्फ जिंदगी में वह आदमी खाना पैदा करने वाली, कपड़ा बनाने वाली, साबुन बनाने वाली मशीन बन जाएगा । उसकी पूरी जिंदगी इसमें नष्ट हो जाएगी।
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