________________
भारत का भविष्य
और ये चारों सूत्र बदले जा सकते हैं। तो भारत के जीवन में धर्म के अनुभव की दिशा में एक नई यात्रा का उदघाटन हो सकता है। वह उदघाटन अत्यंत जरूरी है। उस उदघाटन के बिना हमारे कौम का कोई भी भविष्य नहीं। उस द्वार के खोले बिना हमने जीवन खो दिया है। चर्च हमारा गिरने के करीब है। वह भवन जिसे हम धर्म कहते थे सड़-गल चुका। वह भवन जिसे हमने धर्म समझा था वहां कोई उपासक नहीं जाता है। वह भवन जिसे हम समझे थे कि इससे परमात्मा मिलेगा, उसकी तरफ हमारी पीठ हो गई है। लेकिन हम उस भवन को बदलने को तैयार भी नहीं, नया भवन बनाने के लिए उत्सुक भी नहीं, ऐसी हालतों में हम दोहराते रहेंगे सारी दुनिया के सामने कि हम धार्मिक हैं और हम भलीभांति भीतर जानते हैं कि हम धार्मिक नहीं हैं।
क्या यह स्थिति बदलने जैसी नहीं है? क्या इस स्थिति को ऐसे ही बैठे हुए देखते रहना उचित है ? इस प्रश्न पर ही मैं अपनी बात छोड़ देना चाहता हूं। जिनके भीतर भी थोड़ी समझ है और जिनके भीतर भी थोड़ा जीवन है और जो थोड़ा सोचते हैं और विचारते हैं उनके सामने आज एक ही काम है- भारत के प्राण अधार्मिक हो गए हैं, उन्हें धार्मिक कैसे किया जाए? वे धार्मिक किए जा सकते हैं। थोड़ा ठीक चिंतन और ठीक मार्गों में हम खोज करेंगे तो भारत की आत्मा धार्मिक हो सकती है।
भारत की आत्मा धर्म के लिए प्यासी है। लेकिन झूठे पानी से हम उसे तृप्त करते रहे हैं। प्यास को फिर से जगाना जरूरी है ताकि हम उस सरोवर को खोज सकें जहां प्यास बुझ जाती है और उससे मिलन जाता है। जिसे पा लेने के बाद फिर पा लेने को कुछ भी नहीं बचता और वह जीवन उपलब्ध हो जाता है जिस जीवन की कोई मृत्यु नहीं। और वह सुवास और सुगंध और वह संगीत हाथ में आ जाता है जिसे कोई मोक्ष कहता है, कोई प्रभु कहता है, कोई किंगडम ऑफ गॉड कहता है, कोई और नाम लेता है। प्रत्येक आदमी अधिकारी है उसे पाने का लेकिन गलत रास्तों से उसे नहीं पाया जा सकता है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत - बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
ग्यारहवां प्रवचन
भारत का भविष्य
मेरे प्रिय आत्मन् !
एक नये भारत की ओर ? इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा। पहली बात तो यह कि भारत को हजारों वर्ष तक यह पता नहीं था कि वह पुराना हो गया है। असल में पुराने होने का पता ही तब चलता है जब हमारे पड़ोसी नये हो जाएं। पुराने के बोध के लिए किसी का नया हो जाना जरूरी है।
भारत को हजारों वर्ष तक यह पता नहीं था कि वह पुराना हो गया है। इधर इस सदी में आकर हमें यह प्रतीति होनी शुरू हुई है कि हम पुराने गए हैं। इस प्रतीति को झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं। क्योंकि यह बात मन को वैसे ही दुख देती है जैसे किसी बूढ़े आदमी को जब पता चलता है कि वह बूढ़ा गया है तो दुख शुरू होता है।
Page 157 of 197
http://www.oshoworld.com