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भारत का भविष्य
जीवन के नियम का अंग है यह कि शरीर अगर कहीं कष्ट में हो तो आपको खबर दे, क्योंकि अगर वह खबर न देगा तो उसको कष्ट को दूर करने का फिर कोई मार्ग न रहा। संस्कृत में तो वेदना के दो अर्थ होते हैं। वेदना का अर्थ दुख भी होता है, वेदना का अर्थ बोध भी होता है। इसलिए वेद जिस शब्द से बना, वेदना उसी से बनी है। वेदना का मतलब है : दुख और वेदना का अर्थ है : बोध । दुख का बोध होता ही है। तो जितना आदमी अपने शरीर को कष्ट देगा उतना शरीर का ज्यादा बोध होगा। शरीर को कष्ट देने वाले लोग एकदम शरीर को ही अनुभव करते रहते हैं। आत्मा का उन्हें कभी कुछ पता नहीं चलता। लेकिन हमने हजारों साल में एक धारा विकसित की, शरीर की शत्रता की और शरीर के शत्र हमें आध्यात्मिक मालूम होने लगे। तो जो आदमी अपने शरीर को कष्ट देने में जितना अग्रणी हो सकता था, कांटों पर लेटे जाए कोई आदमी तो वह महात्यागी मालूम होने लगा। शरीर को कोड़े मारे कोई आदमी और लहूलुहान हो जाए। यूरोप में कोड़े मारने वालों का एक संप्रदाय था। उस संप्रदाय के साधु सुबह से उठ कर कोड़े मारने शुरू करते।
और जैसे हिंदुस्तान में उपवास करने वाले साधु हैं जिनकी पैड छपती है कि फलां साधु ने चालीस दिन का उपवास किया, फलां साधु ने सौ दिन का उपवास किया। वैसे यूरोप में वे जो कोड़े मारने वाले साधु थे उनकी भी फेहरिस्त छपती थी कि फलां साधु सुबह एक सौ एक कोड़े मारता है, फलां साधु दो सौ एक कोड़े मारता है। जो जितने ज्यादा कोड़े मारता था वह उतना बड़ा साधु था। आंखें फोड़ लेने वाले लोग हुए, कान फोड़ लेने वाले लोग हुए, जननेंद्रिय काट लेने वाले लोग हुए। शरीर को सब तरह से नष्ट कर देने वाले लोग हुए। यूरोप में एक वर्ग था। जो अपने पैर में जूता पहनता था तो जूतों में नीचे कीलें लगा लेता था ताकि पैर में कीलें चुभते रहें। वे महात्यागी समझे जाते थे। लोग उनके चरण छूते थे कि ये महात्यागी हैं। आपका संन्यासी उतना त्यागी नहीं है, बिना जूते के चलता है सड़क पर। वह जूता भी पहनता था, नीचे कीलें भी लगाता था। तो पैर में घाव हमेशा हरे होने चाहिए, खून गिरता रहना चाहिए। कमर में पट्टे बांधता था, पट्टों में कीलें छिपे रहते थे, जो कमर में अंदर छिपे रहें और घाव हमेशा बने रहें। लोग उनके पट्टे खोल-खोल कर देखते थे कि कितने घाव हैं। कहते थे कि कितने बड़े महान व्यक्ति हैं आप। सारी दुनिया में शरीर के दुश्मनों ने धर्म के ऊपर कब्जा कर लिया है। ये आत्मवादी नहीं हैं। क्योंकि आत्मवादी को शरीर से कोई शत्रुता नहीं है। आत्मवादी के लिए शरीर एक व्हीकल है, शरीर एक सीढ़ी है, शरीर एक माध्यम है, उसे तोड़ने का कोई सवाल नहीं। एक आदमी बैलगाड़ी पर बैठ कर जा रहा था। बैलगाड़ी को चोट पहुंचाने से क्या मतलब है? हम शरीर पर यात्रा कर रहे हैं, शरीर एक बैलगाड़ी है। उसे नष्ट करने से क्या प्रयोजन? वह जितना स्वस्थ होगा, जितना शांत होगा, उतना ही उसे भूला जा सकता है। तो दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, भारत का धर्म चूंकि शरीर को इनकार किया इसलिए अधिकतम लोग अधार्मिक रह गए। वे शरीर को इतना इनकार नहीं कर सके। तो उन्होंने एक काम किया जो शरीर को इनकार
उनकी पूजा की लेकिन खुद अधार्मिक होने को राजी रह गए। क्योंकि शरीर को बिना चोट पहुंचाए
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