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भारत का भविष्य
धार्मिक होने का कोई उपाय न था । अगर भारत को धार्मिक बनाना है तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है। और यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि जो लोग शरीर को चोट पहुंचाते हैं वे न्यूरोटिक हैं, वे विक्षिप्त हैं, वे मानसिक रूप से बीमार हैं। वे आदमी स्वस्थ नहीं हैं। और स्वस्थ भी नहीं है, आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं है। इन आदमियों की मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन ये हमारे लिए आध्यात्मिक थे। तो यह अध्यात्म की गलत धारणा हमें धार्मिक नहीं होने दी।
तीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, अब तक आज तक की हमारी सारी विचारणा इस बात को मान कर चलती रही है कि धर्म एक विश्वास है, बिलीफ, फेथ । विश्वास कर लेना है और धार्मिक हो जाना है। यह बात बिलकुल ही गलत है। कोई आदमी विश्वास करने से धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि विश्वास सदा झूठा है। विश्वास का मतलब है जो मैं नहीं जानता उसको मान लेना । झूठ का और क्या अर्थ हो सकता है। जो मैं नहीं जानता उसको मान लूं।
धार्मिक आदमी जो नहीं जानता उसे मानने को राजी नहीं होगा। वह कहेगा कि मैं खोज करूंगा, मैं समझंगा, मैं विचार करूंगा, मैं प्रयोग करूंगा, मैं अनुभव करूंगा, जिस दिन मुझे पता चलेगा मैं मान लूंगा, लेकिन जब तक मैं नहीं जानता हूं मैं कैसे मान सकता हूं।
लेकिन हम जिन बातों को बिलकुल नहीं जानते उनको मान कर बैठ गए हैं। और इनको मान कर बैठ जाने के कारण हमारी इंक्वायरी, हमारी खोज, हमारी जिज्ञासा बंद हो गई। विश्वास ने भारत के धर्म के प्राण ले लिए। जिज्ञासा चाहिए, विश्वास नहीं । विश्वास खतरनाक है, पायज़नस है। क्योंकि विश्वास जिज्ञासा की हत्या कर देता है। और हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म का विश्वास देने की कोशिश करते हैं। सिखाने की कोशिश करते हैं कि ईश्वर है, आत्मा है, परलोक है, मृत्यु है, यह है, वह है, पुनर्जन्म है, कर्म है, यह हम सब सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। हम जबरदस्ती इस बच्चे को सिखा देते हैं जिस बच्चे को इन बातों का कोई भी पता नहीं है । उसके भीतर प्राणों के प्राण कह रहे होंगे, मुझे तो कुछ पता ही नहीं ।
लेकिन अगर वह कहे कि मुझे पता नहीं, तो हम कहेंगे तू नास्तिक है। जिनको पता है वे कहते हैं कि ये चीजें हैं इनको मान। हम उसके संदेह को दबा रहे हैं और ऊपर से विश्वास थोप रहे हैं । उसका संदेह भीतर सरक जाएगा प्राणों में और विश्वास ऊपर बैठ जाएगा। जो प्राणों में सरक गया वही सत्य है जो ऊपर कपड़ों की तरह टंगा हुआ है वह सत्य नहीं है। इसलिए आदमी धार्मिक दिखाई पड़ता है। धार्मिक नहीं है। धर्म केवल वस्त्र है। उसकी आत्मा में संदेह मौजूद है। उसकी आत्मा में शक मौजूद है कि ये बातें हैं ।
आदमी मंदिर में हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हुआ है। ऊपर से हाथ जोड़े हुए है कह रहा है कि हे भगवान! और भीतर संदेह मौजूद है कि मैं एक पत्थर की मूर्ति के सामने खड़ा हूं इसमें भगवान है ! वह संदेह हमेशा मौजूद रहेगा। वह संदेह तभी मिटेगा जब हमारा अनुभव होगा कि यह भगवान है। उसके पहले वह संदेह नहीं मिट सकता। और उसको जितनी छिपाने की कोशिश करिएगा, वह उतने ही गहरे भीतर उतर जाएगा। और जितने गहरे उतर जाएगा उतना ही आदमी गलत रास्ते पर पहुंच गया क्योंकि आदमी दो हिस्सों में विभाजित हो गया। उसकी आत्मा में संदेह है और बुद्धि में विश्वास है । तो बौद्धिक रूप से हम सब धार्मिक हैं, आत्मिक रूप से हम कोई भी धार्मिक नहीं।
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