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________________ भारत का भविष्य अच्छा, तब तो बहुत अच्छी-अच्छी योजनाएं होंगी। और देखिए हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत के निर्माण के लिए नारी बहुत कुछ कर सकती है। उसका प्यार, उसकी प्रेरणा से क्या नहीं हो सकता, यह हमें तक नहीं, फिर हम चाहे...और आज इसी विषय पर ओशो के विचार हम बहनों को सुनवाते हैं। भारत की संस्कृति, भारत की संपदा जीवन के एक नये द्वार पर खड़ी है। सैकडों वर्षों के अंधकार, गुलामी और दीनता के बाद फिर से एक समृद्ध जीवन का क्षण आया है। इस नये निर्माण में अकेले पुरुष का ही हाथ नहीं होगा, नारी का भी हाथ होगा। और यह सहयोग आश्चर्यजनक मालूम होता है। लेकिन सत्य है कि अब तक इस देश के निर्माण में नारी का कोई हाथ नहीं रहा है। नारी गलाम थी. दास थी. अनचर थी. प्रेमिका थी. लेकिन सहयोगी और सहश्रष्टा नहीं थी। इसके दुष्परिणाम हुए हैं। एक सभ्यता बनी जो अकेले पुरुष की सभ्यता थी—कठोर, परुष, हिंसा और क्रोध और युद्ध से भरी। नारी का कोमल अनुदान उस सभ्यता को नहीं मिला। वह संस्कृति वैसी ही अधूरी थी जैसे कोई देश हो जहां सिर्फ पुरुष हों और स्त्रियां न हों। वह देश जैसा रसहीन, सौंदर्यहीन, संगीतहीन और प्रेमशून्य होगा, वैसी ही यह संस्कृति निर्मित हुई। आने वाले भविष्य में कोई सम्यक और पूर्ण संस्कृति और सभ्यता को जन्म देना हो तो नारी का अत्यंत सहयोग और मूल्यवान स्थान उस निर्माण में होना जरूरी है। एक ऐसा देश निर्मित करना है जो अभय को उपलब्ध हो, प्रेम को उपलब्ध हो, स्वतंत्रता को, प्रकाश को, आनंद को। इस निर्माण के लिए कुछ सूत्रों पर विचार करना उपयोगी है। तीन सूत्रों पर विशेष रूप से। नारी अब तक पुरुष से पीछे थी, अनुचर थी, गुलाम थी। उसे कोई समान स्थान न था। स्वभावतः गुलाम संस्कृतियों के निर्माण नहीं करते हैं। संस्कृति के निर्माण के लिए स्वतंत्र, चेता व्यक्ति चाहिए। नारी स्वतंत्र, चेता व्यक्ति अब तक नहीं थी। फर्क आया है, परिवर्तन हुआ है, नारी ने मांग की है समानता की। लेकिन समानता की मांग के पीछे खतरा भी है। कहीं समान होने की दौड़ में वह पुरुष जैसे होने की प्रवृत्ति में न पड़ जाए। जैसा की सारी दुनिया में हो भी रहा है। नारी अगर पुरुष जैसी होने की कोशिश में पड़ेगी तो फिर अनुचर रह जाएगी, फिर छाया रह जाएगी। फिर भी उसे व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं होगा, उसे निजता और आत्मा उपलब्ध नहीं होगी। पुरुष बनने की दौड़ में नारी एक द्वितीय महत्व के स्थान पर ही खडी रह जाएगी। सिर्फ छाया ही होगी। व्यक्तित्व उसे मिल सकता है तभी जब यह समझ लिया जाए कि नारी भिन्न है, असमान है, लेकिन भिन्नता और असमानता का यह अर्थ नहीं कि उसे समादर उपलब्ध न हो। समादर उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन समानता झूठी बात है। स्त्री और पुरुष समान बिलकुल भी नहीं हैं। और यही उनका आकर्षण भी है, यही उनका बल भी है। स्त्री उतनी ही आकांक्षा के योग्य है, उतनी ही जीवन को रस से भरने वाली जितनी भिन्न है। उसकी भिन्नता में ही, उसके भिन्नता के विकास में ही न केवल उसका जीवन चरितार्थ होगा, बल्कि आने वाली संस्कृति भी सम्यक और पूर्ण हो सकती है। Page 126 of 197 http://www.oshoworld.com
SR No.100002
Book TitleBharat ka Bhavishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size2 MB
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