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आत्म-कथा : भाग १ यह मित्रता मेरे वहम को बढ़ाती रहती थी, क्योंकि मित्रकी सच्चाईपर मुझे अविश्वास बिलकुल न था। इस मित्रकी बातें मानकर मैंने अपनी धर्मपत्नीको कई बार दुःख दिया है। इस हिंसाके लिए मैंने कभी अपनेको माफ नहीं किया। हिंदू स्त्री ही ऐसे दुःखोंको सहन कर सकती होगी। और इसलिए मैंने स्त्रीको हमेशा सहनशीलताकी मत्ति माना है । नौकर-चाकर पर यदि झूठा वहम आने लगे तो वे नौकरी छोड़कर चले जाते हैं, पुत्रपर ऐसी बीते तो बापका घर छोड़कर चला जाता है, मित्रोंमें संदेह पड़ जाय तो मित्रता टूट जाती है, पत्नीको यदि पतिपर शक हो तो बेचारी मन मसोसकर रह जाती है; पर यदि पतिके मनमें पत्नीके लिए गक पड़ जाय तो बेचारीकी मौत ही समझिए। वह कहां जाय ? उच्च-वर्णकी हिंदू स्त्री अदालतमें जाकर तलाक भी नहीं दे सकती। ऐसा एक-पक्षी न्याय उसके लिए रवखा गया है। यही न्याय मैंने उसके साथ बरता, इस दुःखको में कभी नहीं भूल सकता। इस वहमका सर्वथा नारा तो तभी हुआ, जब मुझे अहिंसाका सूक्ष्म ज्ञान हुआ। अर्थात् जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमाको समझा और समझा कि पत्नी पतिकी दासी नहीं वरन् सहचारिणी है, सहधर्मिणी है । दोनों एक-दूसरेके मुख-दुःस्वके समानभागी हैं और पतिको अच्छा-बुरा करनेकी जितनी स्वतंत्रता है उतनी ही पत्नीको भी है। इस वहमके समयकी जब मुझे याद आती है तब मुझे अपनी मूर्खता और विषयांध निर्दयतापर क्रोध और मित्रता-विषयक अपनी इस मा--मूढ़तागर तरस आता है।
चोरी और प्रायश्चित्त मांसाहार के समयके और उसके पहले के अपने कुछ दूषणोंका वर्णन करना अभी बाकी है । ये या तो विवाहके पहलेके हैं या तुरंत बादके ।
अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे सिगरेट पीनेका चस्का लग गया। पैसे तो हमारे पास थे ही नहीं। दोनोंमें से किसीको भी यह तो नहीं मालूम होता था कि सिगरेट पीने में कुछ फायदा है या उसकी गंधमें कुछ स्वाद है; पर एतना