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________________ ४२० आत्म-कथा : भाग ५ १५ मुकदमा वापस .. " 66 मुकदमा चला । सरकारी वकील, मजिस्ट्रेट वगैरा चितित हो रहे थे । नहीं पड़ता था कि क्या करें । सरकारी वकील तारीख बढ़ानेकी कोशिश कर रहा था । मैं बीचमें पड़ा और मैंने अर्ज किया कि "तारीख बढ़ाने की कोई • जरूरत नहीं है; क्योंकि मैं अपना यह अपराध कबूल करना चाहता हूं कि मैंने चंपारन छोड़नेकी नोटिसका अनादर किया है । यह कहकर मैंने जो अपना छोटा सा वक्तव्य तैयार किया था वह पढ़ सुनाया। वह इस प्रकार था -- अदालतकी आज्ञा लेकर में संक्षेपमें यह बतलाना चाहता हूं कि जावेता फौजदारीको दफा १४४की रूसे दिये नोटिस द्वारा मुझे जो आज्ञा दी गई है, उसकी स्पष्ट अवज्ञा मैंने क्यों की । मेरी समझ में यह raarat नहीं बल्कि स्थानीय अधिकारियों और मेरे बीच मत-भेदका प्रश्न है । मैं इस प्रदेशमें जन सेवा तथा देश-सेवा करनेके विचार से आया हूं। यहां आकर उन रैयतोंकी सहायता करनेके लिए मुझसे बहुत आग्रह किया गया था, जिनके साथ कहा जाता है कि निलहे साहब अच्छा व्यवहार नहीं करते; इसीलिए मैं यहां आया हूँ । पर जबतक मैं सब बातें अच्छी तरह जान न लेता, तबतक उन लोगोंकी कोई सहायता नहीं कर सकता था । इसलिए यदि हो सके तो अधिकारियों और निलहे साहब की सहायता में सब बातें जानने के लिए आया हूं। मैं किसी दूसरे उद्देश्यसे यहां नहीं आया हूं। मुझे यह विश्वास नहीं होता कि मेरे यहां आने से किसी प्रकार शांति-भंग या प्राण-हानि हो सकती है । में कह सकता हूं कि मुझे ऐसी बातोंका बहुत अनुभव है | अधिकारियोंको जो कठिनाइयां होती हैं, उनको मैं समझता हूं; और मैं यह भी मानता हूं कि उन्हें जो सूचना मिलती है, वे केवल उसीके अनुसार काम कर सकते हैं। कानून माननेवाले व्यक्तिकी तरह मेरी प्रवृत्ति यही होनी चाहिए थी, और ऐसी प्रवृत्ति हुई भी कि मैं इस आज्ञा का पालन करूं; परंतु
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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