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________________ आत्म-कथा : भाग ५ अनिश्चित समयके लिए बंद करके लेखकके रूपमें काम करना भी मेरी कुछ कम मांग नहीं है। यहांकी बोली समझने में मुझे बहुत दिक्कत पड़ती है। कागजपत्र सब उर्दू या कैथीमें लिखे होते हैं, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकता। उनके अनुवादकी मैं आपसे आशा रखता हूं । रुपये देकर यह काम कराना चाहें तो अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह सब सेवा-भावसे, बिना पैसेके, होना चाहिए। बृजकिशोरबाबू मेरी बातको समझ तो गये; परंतु उन्होंने मुझसे तथा अपने साथियोंसे जिरह शुरू की। मेरी बातोंका फलितार्थ उन्हें बताया। मुझसे पूछा-- "आपके अंदाजमें कबतक वकीलोंको यह त्याग करना चाहिए, कितना करना चाहिए, थोड़े-थोड़े लोग थोड़ी-थोड़ी अवधिके लिए आते रहें तो काम चलेगा या नहीं ? " इत्यादि । वकीलोंसे उन्होंने पूछा कि आप लोग कितनाकितना त्याग कर सकेंगे ? ____ अंतमें उन्होंने अपना यह निश्चय प्रकट किया-- हम इतने लोग तो आप जो काम सौंपेंगे करने के लिए तैयार रहेंगे । इनमेंसे जितनोंको आप जिस समय चाहेंगे आपके पास हाजिर रहेंगे। जेल जानेकी बात अलबत्ता हमारे लिए नई है; पर उसकी भी हिम्मत करनेकी हम कोशिश करेंगे।" अहिंसादेवीका साक्षात्कार मुझे तो किसानोंकी हालतकी जांच करनी थी। यह देखना था कि नीलके मालिकोंकी जो शिकायत किसानोंको थी, उसमें कितनी सचाई है। इसमें हजारों किसानोंसे मिलनेकी जरूरत थी'; परंतु इस तरह आमतौरपर उनसे मिलने-जुलनेके पहले, निलहे मालिकोंकी बात सुन लेने और कमिश्नरसे मिलनेकी आवश्यकता मुझे दिखाई दी। मैंने दोनोंको चिट्ठी लिखी । .. ___ मालिकोंके मंडलके मंत्रीसे मिला तो उन्होंने मुझे साफ कह दिया, “आप तो बाहरी आदमी है। आपको हमारे और किसानोंके झगड़ेमें न पड़ना चाहिए। फिर भी यदि आपको कुछ कहना हो तो लिखकर भेज दीजिएगा।" मैंने मंत्रीसे सौजन्यके साथ कहा- "मैं अपनेको बाहरी आदमी नहीं समझता और किसान
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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