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अध्याय ७ : दुःखद प्रसंग- २
समय तो मेरी अक्ल बौरिया गई थी ।
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दु:खद प्रसंग – २
नियत दिन आया । उस समयकी मेरी दशाका हूबहू वर्णन करना कठिन है । एक ओर सुधारका उत्साह, जीवनमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करनेका कुतूहल और दूसरी ओर चोरकी तरह लुक-छिपकर काम करनेकी शरम ! नहीं कह सकता इनमें किस भाव की प्रधानता थी । हम एकांत जगहकी तलाशमें नदीकी तरफ चले । दूर जाकर एक ऐसी जगह मिली जहां कोई सहसा न देख सके और जहां मैंने देखा मांस, जिसे जीवनमें पहले कभी न देखा था; साथमें भटियारेके यहांकी डबल रोटी भी थी। दोनोंमेंसे एक भी चीज न भाई। मांस चमड़ेकी तरह लगा । खाना असंभव हो गया । मुझे कै-सी होने लगी छोड़ना पड़ा ।
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खाना यों ही
मेरे लिए यह रात बहुत कठिन साबित हुई। नींद किसी तरह न प्राती थी । ऐसा मालूम होता मानो बकरा मेरे शरीरके अंदर जीवित है और सपने में मानो वह बें -बें चिल्लाता है । मैं चौंक उठता, पछताता, पर फिर सोचता कि मांशाहार के बिना तो गति ही नहीं; यों हिम्मत न हारनी चाहिए । मित्र भी पिंड छोड़नेवाले नथे । उन्होंने अब मांसको तरह-तरह से पकाना और सुस्वादु बनाना तथा ढककर रखना शुरू किया। नदी किनारे ले जानेके बजाय राज्यके एक भवनमें वहांके बाबर्ची से इंतजाम करके छिपे-छिपे जानेकी तजवीज की और वहां मेज कुर्सी इत्यादि सामग्रियोंके ठाट-बाटसे मुझे लुभाया । इसका अभीष्ट असर मेरे दिलपर हुआ | डबलरोटीसे नफरत हटी, बकरेकी दया माया छूटी और मांसका तो नहीं कह सकता, पर मांसवाले पदार्थोंका स्वाद लग गया। इस तरह एक साल गया होगा और इस बीच कुल पांच-छ: बार मांस खानेको मिला होगा। क्योंकि एक तो बार-बार राज्यका भवन न मिलता, और दूसरे मांसके सुस्वादु पदार्थ हमेशा तैयार न हो पाते। फिर ऐसे भोजनोंके लिए खर्च भी करना पड़ता । इधर मेरे पास कानी कौड़ी भी न थी । मैं देता क्या ? खर्चका इंतजाम सोचना