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आत्म-कथा : भाग ५
अपने स्वभाव के अनुसार में विद्यार्थियों और शिक्षकोंमें मिल-जुल गया और शारीरिक श्रम तथा काम करने के बारेमें वहां चर्चा करने लगा। मैंने सूचित किया कि वैतनिक रसोइयाकी जगह यदि शिक्षक और विद्यार्थी ही अपनी रसोई पका लें तो अच्छा हो । रसोई-घरपर आरोग्य और नीतिकी दृष्टिसे शिक्षकगण देख-भाल करें और विद्यार्थी स्वावलंबन और स्वयंपाकका पदर्थ - पाठ लें । यह बात मैंने वहांके शिक्षकोंके सामने उपस्थित की। एक-दो शिक्षकोंने तो इसपर सिर हिला दिया; परंतु कुछ लोगोंको मेरी बात बहुत पसंद भी आई। बालकोंको तो वह बहुत ही जंच गई; क्योंकि उनको तो स्वभाव से ही हरेक नई बात आ जाया करती है । बस, फिर क्या था, प्रयोग शुरू हुआ । जब कविवरतक यह बात पहुंची तो उन्होंने कहा, यदि शिक्षक लोगोंको यह बात पसंद ना जाय तो मुझे यह जरूर प्रिय है । उन्होंने विद्यार्थियोंसे कहा कि यह स्वराज्य की कुंजी है । पीयर्स ने इस प्रयोगको सफल करनेमें जी - जानसे मिहनत की । उनको यह बात बहुत ही पसंद आई थी। एक ओर शाक काटनेवालोंका जमघट हो गया, दूसरी ओर अनाज साफ करनेवाली मंडली बैठ गई । रसोई घर के आसपास शास्त्रीय शुद्धि करनेमें नगीन बाबू आदि डट गये । उनको कुदाली फावड़े लेकर काम करते हुए देख मेरा हृदय बासों उछलने लगा ।
परंतु यह शारीरिक श्रमका काम ऐसा नहीं था कि सवा-सौ लड़के और शिक्षक एकाएक बरदाश्त कर सकें । इसलिए रोज इसपर बहस होती । कितने ही लोग थक भी जाते; किंतु पीयर्सन क्यों थकने लगे ? वह हमेशा हंसमुख रहकर रसोईके किसी-न-किसी काममें लगे ही रहते। बड़े-बड़े बर्तनोंको मांजना उन्हींका काम था । वर्तन मांजनेवाली टुकड़ीकी थकावट उतारनेके लिए कितने ही विद्यार्थी वहां सितार बजाते । हर कामको विद्यार्थी बड़े उत्साह के साथ करने लगे और सारा शांति निकेतन शहदके छत्तेकी तरह गूंजने लगा ।
इस तरह के परिवर्तन जो एक बार आरंभ होते हैं तो फिर वे रुकते नहीं । फिनिक्सका रसोई-घर केवल स्वावलंबी ही नहीं था; बल्कि उसमें रसोई भी बहुत सादा बनती थी । मसाले वगैरा काममें नहीं लाये जाते थे । इसलिए भात, दाल, शाक और गेहूंकी चीजें भाफमें पका ली जाती थीं । बंगाली भोजनमें सुधार करनेके इरादेसे इस प्रकारकी एक पाकशाला रक्खी गई थी। इसमें
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