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आत्म-कथा : भाग ४
मवक्किल साथी बने नेटाल और ट्रांसवालकी वकालतमें भेद था। नेटालमें एडवोकेट और अटर्नी ये दो विभाग होते हुए भी दोनों तमाम अदालतोंमें एकसाथ वकालतकर सकते थे। परंतु ट्रांसवालमें बंबईकी तरह भेद था। वहां एडवोकेट मवक्किलसंबंधी सारा काम अटर्नीके मार्फत ही कर सकता था। जो बैरिस्टर हो गया हो वह एडवोकेट अथवा अटर्नी किसी भी एकके कामकी सनद ले सकता है और फिर वही एक काम कर सकता था। नेटालमें मैंने एडवोकेटकी सनद ली थी
और ट्रांसवालमें अटर्नी की। यदि एडवोकेटकी ली होती तो मैं वहांके हिंदुस्तानियोंके सीधे संपर्क में न आ पाता और दक्षिण अफ्रीकामें ऐसा वातावरण भी नहीं था कि गोरे अटर्नी मुझे मुकदमे ला-लाकर देते ।
ट्रांसवालमें इस तरह वकालत करते हुए मजिस्ट्रेटकी अदालतमें मैं बहुत बार जा सकता था। ऐसा करते हुए एक मौका ऐसा आया कि मुकदमेकी सुनवाईके बीचमें मुझे पता चला कि मवक्किलने मुझे धोखा दिया है । उसका मुकदमा झूठा था । वह कटघरे में खड़ा हुआ तो मानो गिरा पड़ता था। इससे मैं मजिस्ट्रेटको यह कहकर बैठ गया कि आप मेरे मवक्किलके खिलाफ फैसला दीजिए । विपक्षका वकील यह देखकर दंग रह गया। मजिस्ट्रेट खुश हुआ। मैंने मवक्किलको बड़ा उलाहना दिया ; क्योंकि उसे पता था कि मैं झूठे मुकदमे नहीं लेता था। उसने भी यह बात मंजूर की और मैं समझता हूं कि उसके खिलाफ फैसला होने से वह नाराज नहीं हुआ। जो हो ; पर इतना जरूर है कि मेरे सत्य व्यवहारका कोई बुरा असर मेरे पेशेपर नहीं हुआ और अदालतमें मेरा काम बड़ा सरल हो गया । मैंने यह भी देखा कि मेरी इस सत्य-पूजाकी बदौलत वकील-बंधुनोंमें भी मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी और परिस्थितिकी विचित्रताके रहते हुए भी मैं उनमेंसे कितनोंकी ही प्रीति संपादन कर सका था ।
वकालत करते हुए मैंने अपनी एक ऐसी आदत भी डाल ली थी कि मैं अपना अज्ञान न मवक्किलसे छिपाता, न वकीलोंसे । जहां बात मेरी समझमें