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________________ अध्याय ६.: दुःखद :प्रसंग-१ ये दलील एक ही दिनमें नहीं पेश हुईं । अनेक उदाहरणोंसे सजाकर कई बार पेश की गई। मेरे मंझले भाई तो मांस खाकर भ्रष्ट हो ही चुके थे। उन्होंने भी इस दलीलका समर्थन किया। इन मित्रके और अपने भाईके मुकाबले में मैं दुबला-पतला और कमजोर था। उनके शरीर ज़्यादा सुगठित थे। उनका शरीर-बल मुझसे बहुत ज्यादा था। वह निर्भय थे। इन मित्रके परात्र म मुझे मुग्ध कर लेते। वह जितना चाहें दौड़ सकते। गति भी बहुत तेज थी। बहुत लंबा और ऊंचा कूद सकते थे। मार सहनेकी शक्ति भी वैसी ही थी। इस शक्तिका प्रदर्शन भी वह समय-समय पर करते। अपने अंदर जो सामर्थ्य नहीं होता उसे दूसरेमें देखकर मनुष्य को अवश्य आश्चर्य होता है । वैसा ही मुझे भी हुआ। आश्चर्य से मोह पैदा हुआ। मुझमें दौड़ने-कूदने की शक्ति नहींके बराबर थी। मेरे मनने कहा--" इन मित्रके समान बलवान मैं भी बन जाऊं तो क्या बहार फिर मैं डरपोक भी बड़ा था। चोर, भूत, सांप आदिके भयसे सदा घिरा रहता। इन भयोंसे मैं घबराता भी बहुत । रातमें कहीं अकेले जानेकी हिम्मत न होती। अंधेरेमें तो कहीं न जाता। बिना चिरागके सोना प्रायः असंभव था। कहीं यहांसे भूत-पिशाच निकलकर न पा जायं, वहांसे चोर और उधरसे सांप न आ घुसे--यह डर बना रहता, इसलिए रोशनी जरूर रखता। इधर अपनी पत्नी के सामने भी, जो कि पास ही सोती और अब कुछ-कुछ युत्रती हो चली थी, ये भयकी बातें करते हुए संकोच होता था। क्योंकि मैं इतना ज़ान चुका था कि वह मुझसे अधिक हिम्मतवाली है, इस कारण मैं शरमाता था। उसे सांप वगैरहका भय तो कहीं छूतक नहीं गया था, अंधेरेमें अकेली चली जाती। मेरी इन कमजोरियोंका हाल उन मित्रको मालूम था । वह तो मुझसे कहा करता कि मैं जीते सांपको हाथ पकड़ लेता हूं। चोरसे तो वह डरता ही न था, न भूतप्रेतोंको ही मानता था। मतलब यह कि उसने यह बात मेरे मनमें जमा दी कि यह सब मांसाहारका प्रताप है ।। इन दिनों नर्मद कविकी यह कविता स्कुलमें गाई जाती---- अंग्रेजो राज करे, देशी रहे दबाई, देशी रहे दबाई, जोने बेना शरीर भाई,
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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