SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-कथा : भाग ४ उसके बाद तो उनके-मेरे बीच बहुत पत्र-व्यवहार हुआ है । परंतु उन सब कडुए अनुभवोंका वर्णन यहां करके इस अध्यायको मैं लंबा करना नहीं चाहता। परंतु इतना तो कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि वे अनुभव वैसे ही थे, जैसे कि रोज हमें हिंदुस्तानमें होते रहते हैं। अफसरोंने कहीं धमकाकर, कहीं तरकीबसे काम लेकर , हमारे अंदर फूट डाल दी । कसम खानेके बाद भी कितने ही लोग छल और बलके शिकार हो गये । इसी बीच नेटली अस्पतालमें एकाएक घायल सिपाही अकल्पित संख्या में आ पहुंचे और इनकी शुश्रूषाके लिए हमारी सारी टुकड़ीकी जरूरत पड़ी। अफसर जिनको अपनी ओर कर सके थे वे तो नेटली पहुंच गये पर दूसरे लोग न गये। इंडिया आफिसको यह बात अच्छी न लगी। मैं था तो बीमार और बिछौनेपर पड़ा रहता था; परंतु टुकड़ी के लोगोंसे मिलता रहता था। मि० राबर्ट्ससे मेरा काफी परिचय हो गया था। वह मुझसे मिलने आ पहुंचे और जो लोग बाकी रह गये थे उन्हें भी भेजनेका आग्रह करने लगे। उनका सुझाव यह था कि वे एक अलग टुकड़ी बनाकर जावें । नेटली अस्पतालमें तो टुकड़ीको वहींके अफसरके अधीन रहना होगा, इसलिए आपकी मानहानिका भी सवाल नहीं रहेगा। इधर सरकारको उनके जानेसे संतोष हो जायगा और उधर जो बहुतेरे जख्मी एकाएक आ गये हैं, उनकी भी शुश्रूषा हो जायगी। मेरे साथियों और मुझको यह तजवीज पसंद हुई और जो विद्यार्थी रह गये थे वे भी नेटली चले गये। अकेला मैं ही दांत पीसता बिछौने में पड़ा रहा । गोखलेकी उदारता __ ऊपर मैं लिख आया हूं कि विलायतमें मुझे पसलीके वरमकी शिकायत हो गई थी। इस बीमारीके वक्त गोखले विलायतमें आ पहुंचे थे। उनके पास मैं व केलनबेक हमेशा जाया करते । उनसे अधिकांशमें युद्धकी ही बातें हुआ करतीं। जर्मनीका भूगोल केलनबेककी जबानपर था, यूरोपकी यात्रा भी उन्होंने बहुत की थी, इसलिए वह नक्शा फैलाकर गोखलेको लड़ाईकी छावनियां दिखाते ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy