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आत्म-कथा : भाग ४
दिनोंमें लिखे शब्द याद आते हैं-- " प्रापको सत्यके लिए किसी दिन फांसीपर लटकना पड़े तो आश्चर्य नहीं । ईश्वर श्रापको सन्मार्ग दिखावे और आपकी रक्षा करे ।” सोराबजी के साथ यह बातचीत तो उस समय हुई थी जब उस अधिकारीकी नियुक्तिका प्रारंभ काल था । परंतु उस प्रारंभ और अंतका अंतर थोड़े ही दिनका था । इसी बीच मुझे पसली में वरमकी बीमारी जोरके साथ पैदा हो गई थी । चौदह दिन उपवासके बाद अभी मेरा शरीर पनपा नहीं था, फिर भी मैं कवायद में पीछे नहीं रहता था । और कई बार घरसे कबायदके मैदानतक पैदल जाता था । कोई दो मील दूर वह जगह थी और उसीके फलस्वरूप ग्रन्तमें मुझे खटिया पकड़नी पड़ी थी ।
इसी स्थिति में मुझे कैंप में जाना पड़ता था । दूसरे लोग तो वहां रह जाते थे और मैं शामको घर वापस आ जाता । यहीं सत्याग्रहका अफसर खड़ा हो गया था । उस अफसरने अपनी हुकूमत चलाई। उसने हमें साफ-साफ कह दिया कि हर बात में मैं ही आपका मुखिया हूं। उसने अपनी अफसरी के दो-चार पदार्थ पाठ (नमूने) भी हमें बताये । सोराबजी मेरे पास पहुंचे। वह इस 'जहांगीरी' को बरदाश्त करनेके लिए तैयार न थे । उन्होंने कहा -- "हमें सब हुक्म आपकी मार्फत ही मिलने चाहिए। अभी तो हम तालीमी छावनी में हैं; पर अभी से देखते हैं कि बेहूदे हुक्म छूटने लगे हैं । उन जवानोंमें और हममें बहुतेरी बातों में भेद-भाव रखा जाता है । यह हमें बरदाश्त नहीं हो सकता । इसकी व्यवस्था तुरंत होनी चाहिए, नहीं तो हमारा सब काम बिगड़ जायगा । ये सब विद्यार्थी तथा दूसरे लोग, जो इस काम में शरीक हुए हैं, एक भी बेहूदा हुक्म बरदाश्त न करेंगे । स्वाभिमान की रक्षा करनेके उद्देश्यसे जो काम हमने अंगीकार किया है, उसमें यदि हमें अपमान ही सहन करना पड़े तो यह नहीं हो सकता । "
मैं उस अफसर के पास गया और मेरे पास जितनी शिकायतें आई थीं, सब उसे सुना दीं। उसने कहा - "ये सब शिकायतें मुझे लिखकर दे दो ।" साथ ही उसने अपना अधिकार भी जताया। कहा -- “ शिकायत आपके मार्फत नहीं हो सकती । उन नायब अफसरोंके मार्फत मेरे पास आनी चाहिए । मैंने उत्तरमें कहा -- "मुझे अफसरी नहीं करना है। फौजी रूपमें तो मैं एक मामूली सिपाही ही हूं । परंतु हमारी टुकड़ी के मुखियाकी हैसियत से आपको
"