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________________ आत्म-कथा : भाग ४ जो मनुष्य बंदूक धारण करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनों अहिंसाकी दृष्टिसे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता । जो आदमी डाकुओंोंकी टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करनेका काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि खुद वह डाकू । इस दृष्टिसे जो मनुष्य युद्धमें घायलोंकी सेवा करता है, वह युद्धके दोषोंसे मुक्त नहीं रह सकता । पोलकका तार आने के पहले ही मेरे मनमें यह सब विचार उठ चुके थे । उनका तार आते ही मैंने कुछ मित्रोंसे इसकी चर्चा की। मैंने अपना धर्म समझकर युद्धमें योग दिया था और आज भी मैं विचार करता हूं तो इस विचार-सरणिमें मुझे दोष नहीं दिखाई पड़ता । ब्रिटिश साम्राज्य के संबंधमें उस समय जो विचार मेरे थे उनके अनुसार ही मैं युद्ध में शरीक हुआ था और इसलिए मुझे उसका कुछ भी पश्चात्ताप नहीं है । ३५६ 'जानता हूं कि अपने इन विचारोंका प्रौचित्य मैं अपने समस्त मित्रोंके सामने उस समय भी सिद्ध नहीं कर सका था । यह प्रश्न सूक्ष्म है । इसमें मत-भेदके लिए गुंजाइश है । इसीलिए अहिंसा - धर्मको माननेवाले और सूक्ष्म रीति से उसका पालन करनेवालोंके सामने जितनी हो सकती है खोलकर मैंने अपनी राय पेश की है । सत्यका आग्रही व्यक्ति रूढ़िका अनुसरण करके ही हमेशा कार्य नहीं करता, न वह अपने विचारोंपर हठ - पूर्वक प्रारूढ़ रहता है । वह हमेशा उसमें दोष होनेकी संभावना मानता है और उस दोषका ज्ञान हो जानेपर हर तरहकी जोखिम उठाकर भी उसको मंजूर करता है और उसका प्रायश्चित्त भी करता है । ४० सत्याग्रहकी चकमक इस तरह अपना धर्म समझकर मैं युद्ध में पड़ा तो सही, पर मेरे नसीब में यह नहीं बदा था कि उसमें सीधा भाग लूं, बल्कि ऐसे नाजुक मौकेपर सत्याग्रहतक
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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