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________________ ३५६ आत्म-कथा : भाग ४ सामने उनका एक ढेर रख दिया और कहा कि जितने सिला सको, उतने सिलाकर मुझे दे देना । मैंने उनकी इच्छाका स्वागत करते हुए घायलोंकी शुश्रूषाकी उस तालीमके दिनोंमें जितने कपड़े तैयार हो सके उतने करके दे दिये । ३६ धर्मकी समस्या युद्धमें काम करने के लिए हम कुछ लोगोंने सभा करके जो अपने नाम सरकारको भेजे, इसकी खबर दक्षिण अकीका पहुंचते ही वहांसे दो तार मेरे नाम आये । उनमें से एक पोलकका था । उन्होंने पूछा था-- 'आपका यह कार्य हिंसा सिद्धांत के खिलाफ तो नहीं है ? "" " मैं ऐसे तार की आशंका कर ही रहा था; क्योंकि 'हिंद स्वराज्य' में मैंने इस विषयकी चर्चा की थी और दक्षिण अफ़्रीकामें तो मित्रोंके साथ उसकी चर्चा निरंतर हुआ ही करती थी । हम सब इस बातको मानते थे कि युद्ध ग्रनीति मय है । ऐसी हालत में और जबकि मैं ग्रपनेपर हमला करनेवालेपर भी मुकदमा चलाने के लिए तैयार नहीं हुआ था तो फिर जहां दो राज्योंमें युद्ध चल रहा हो और जिसके भले या बुरे होनेका मुझे पता न हो उसमें मैं सहायता कैसे कर सकता हूं, यह प्रश्न था । हालांकि मित्र लोग यह जानते थे कि मैंने बोअर-संग्राम में योग दिया था तो भी उन्होंने यह मान लिया था कि उसके बाद मेरे विचारोंमें परिवर्तन हो गया होगा । और बात दरअसल यह थी कि जिस विचार- सरणिके अनुसार मैं बोरयुद्धमें सम्मिलित हुआ था उसीका अनुसरण इस समय भी किया गया था । मैं ठीक-ठीक देख रहा था कि युद्धमें शरीक होना अहिंसा के सिद्धांत के अनुकूल नहीं है, परंतु बात यह है कि कर्त्तव्यका भान मनुष्यको हमेशा दिनकी तरह स्पष्ट नहीं दिखाई देता । सत्यके पुजारीको बहुत बार इस तरह गोते खाने पड़ते हैं । हिंसा एक व्यापक वस्तु है । हम लोग ऐसे पामर प्राणी हैं, जो हिंसा की होली में फंसे हुए हैं । 'जीवो जीवस्य जीवनम्' यह बात असत्य नहीं है । मनुष्य एक क्षण भी बाह्य हिंसा किये बिना नहीं जी सकता । खाते-पीते, बैठते-उठते, तमाम
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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