SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ आत्म-कथा : भाग ४ वे मुझे सहज ही हरा सकते हैं और जब कोई तामिलभाषी मुझसे मिलने आते तो वे मेरे दुभाषियाका काम देते थे । परंतु मेरा काम चल निकला ; क्योंकि विद्यार्थियोंसे मैंने कभी अपने अज्ञानको छिपानेका प्रयत्न नहीं किया। वे मुझे सब बातों में वैसा ही जान गये थे, जैसा कि वास्तवमें था । इससे पुस्तक - ज्ञानकी भारी कमी रहते हुए भी मैंने उनके प्रेम और आदरको कभी न हटने दिया था । . परंतु मुसलमान बालकों को उर्दू पढ़ाना इससे आसान था; क्योंकि वेलप जानते थे । उनके साथ तो मेरा इतना ही काम था कि उन्हें पढ़नेका शौक बढ़ा दू और उनका खत अच्छा करवा दू । मुख्यतः ये सब बालक निरक्षर थे और किसी पाठशाला में पढ़े न थे । पढ़ते-पढ़ाते मैंने देखा कि उन्हें पढ़ानेका काम तो कम ही होता था । उनका आलस्य छुड़वाना, उनसे अपने-आप पढ़वाना, उनके सबक याद करनेकी चौकीदारी करना, यही काम ज्यादा था; पर इतनेसे में संतोष पाता था, और यही कारण है जो मैं भिन्न-भिन्न अवस्था और भिन्न-भिन्न विषयवाले विद्यार्थियोंको एक ही. कमरेमें बैठाकर पढ़ा सकता था । " पाठ्य-पुस्तकोंकी पुकार चारों ओरसे सुनाई पड़ा करती है; किंतु मुझे उनकी भी जरूरत न पड़ी। जो पुस्तकें थीं भी, मुझे नहीं याद पड़ता कि उनसे भी बहुत काम लिया गया हो । प्रत्येक बालकको बहुतेरी पुस्तकें देनेकी जरूरत मुझे नहीं दिखाई दी । मेरा यह खयाल रहा कि शिक्षक ही विद्यार्थियोंकी पाठ्य पुस्तक है । शिक्षकोंने पुस्तकों द्वारा मुझे जो कुछ पढ़ाया उसका बहुत थोड़ा श्रंश मुझे याज याद है; परंतु जबानी शिक्षा जिन लोगोंने दी है वह आज भी याद रह गई है । बालक के द्वारा जितना ग्रहण करते हैं उससे अधिक कानसे सुना हुआ, और सो भी थोड़े परिश्रम ग्रहण कर सकते हैं। मुझे याद नहीं कि बालकोंको मैंने एक भी पुस्तक शुरू से ग्राखीरतक पढ़ाई हो । मैंने तो खुद जो कुछ बहुतेरी पुस्तकोंको पढ़कर हजम किया था वही उन्हें अपनी भाषा में बताया और मैं मानता हूं कि वह उन्हें आज भी याद होगा । मैंने देखा कि पुस्तकपरसे पढ़ाया हुआ याद रखनेमें उन्हें दिक्कत होती थी; परंतु मेरा जबानी कहा हुआ याद रखकर वे मुझे फिर सुना देते थे । पुस्तक
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy