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आत्म-माथा: भाग ४
तो भी मुझे नहीं याद पड़ता कि सख्तीका विरोध कभी उन्होंने किया हो। जबजव में उनपर लख्ती करता तभी तब उन्हें समझाता और उन्हींसे कबूल करवाता कि काम के समय खेलना भच्छी आदत नहीं । वे उस समय तो समझ जाते; पर दूसरे ही क्षण भूल जाते। इस तरह काम चलता रहता; परंतु उनके शरीर बनते जाते थे।
माश्रममें शायद ही कोई बीमार होता। कहना होगा कि इसका बड़ा कारण था यहांकी पाबहवा और अच्छा तथा नियमित भोजन । शारीरिक शिक्षाके सिलसिलेमें ही शारीरिक व्यवसायकी शिक्षाका भी समावेश कर लेता हूं। इरादा यह था कि सबको कुछ-न-कुछ उपयोगी धंधा सिखाना चाहिए । इसलिए भि केलनबेक 'ट्रेपिस्ट मठ' में चप्पल गांठना सीख पाये थे। उनसे मैंने सीखा और मैंने उन बालकोंको सिखाया, जो इस हुनरको सीखने के लिए तैयार थे। मि० केलनवेकको बढ़ईगीरीका भी कुछ अनुभव था और आश्रममें बढ़ईका काम जाननेवाला एक साथी भी था। इसलिए यह काम भी थोड़े-बहुत अंशमें सिखाया जाता। रसोई बनाना तो लगभग सब ही लड़के सीख गये थे।
ये सब काम इन बालकोंके लिए नये थे। उन्होंने तो कभी स्वप्नमें भी यह न सोचा होगा कि ऐसा काम सीखना पड़ेगा, दक्षिण अफ्रीकामें हिंदुस्तानी बालकोंको केवल प्राथमिक अक्षर-ज्ञानकी ही शिक्षा दी जाती थी। टॉल्स्टायआश्रममें पहलेले ही यह रिवाज डाला था कि जिन कामको हम शिक्षित लोग न करें वह बालकोंसे न कराया जाय और हमेशा उनके साथ-साथ कोई-न-कोई शिक्षक काम करता। इससे वे बड़ी उमंगके साथ सीख सके ।
वादिय और साक्षर ज्ञानके संबंधों अब इसके बाद ।
अक्षर-शिक्षा पिक अध्याय में हमने यह देख लिया कि शारीरिक शिक्षा और उसके माथ कुछ डुलर सिखानेका काम टॉल्स्टाग-आश्रममें किस तरह शुरू हुआ। यद्यपि इस कामको मैं इस तरह नहीं कर सका कि जिससे मुझे संतोष होता फिर