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आत्म-कथा : भाग ४
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'जाको राखे साइयां'
इस समय तो मैंने निकट भविष्यमें देश जानेकी अथवा वहां जाकर स्थिर. होनेकी प्राशा छोड़ दी थी । इधर मैं पत्नीको एक सालका दिलासा देकर दक्षिण आया था; परंतु साल तो बीत गया और में लौट न सका; इसलिए निश्चय किया कि बाल-बच्चोंको यहीं बुलवा लूं ।
बाल-बच्चे ना गये | उनमें मेरा तीसरा पुत्र रामदास भी था । रास्ते में जहाजके कप्तान के साथ वह खूब हिल-मिल गया था और उनके साथ खिलवाड़ करते हुए उसका हाथ टूट गया था । कप्तानने उसकी खूब सेवा की थी । डाक्टरने हड्डी' जोड़ दी थी और जब वह जोहान्सबर्ग पहुंचा तो उसका हाथ लकड़ी की पट्टीसे बांधकर रूमालमें लटकाया हुआ अधर रक्खा गया था। जहाजके डाक्टर की हिदायत थी कि जख्मका इलाज किसी डाक्टरसे ही कराना चाहिए ।
परंतु यह जमाना मेरे मिट्टी के प्रयोगोंके दौर दौरेका था । अपने जिन मवविकलोंका विश्वास मुझ अनाड़ी वैद्यपर था उनसे भी में मिट्टी और पानीका प्रयोग कराता था । तव रामदासके लिए दूसरा क्या इलाज हो सकता था ? रामदासकी उम्र उस समय आठ वर्षकी थी । मैंने उससे पूछा - " मैं तुम्हारे जख्मकी मरहम-पट्टी खुद करूं तो तुम डरोगे तो नहीं ? " रामदासने हंसकर मुझे प्रयोग करनेकी छुट्टी दे दी । इस उनमें उसे अच्छे-बुरेकी पहचान नहीं हो सकती थी, फिर भी डाक्टर और 'नीम-हकीम' का भेद वह अच्छी तरह जानता था । इसके व उसे मेरे प्रयोगोंका हाल मालूम था और मुझपर उसका विश्वास था। इसलिए उसको कुछ डर नहीं मालूम हुधा ।
मैंने उसकी पट्टी खोली । पर उस समय मेरे हाथ कांप रहे थे और दिल धड़क रहा था । मैंने जख्मको धोया और साफ मिट्टीकी पट्टी रखकर पूर्ववत् पट्टी बांध दी । इस तरह रोज मैं जख्म साफ करके मिट्टी की पट्टी चढ़ा देता । कोई महीने भर में घाव सूख गया। किसी भी दिन उसमें कोई खराबी पैदा न हुई और दिन-दिन वह सूखता ही गया । जहाजके डाक्टरने भी कहा था कि डाक्टरी