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________________ अध्याय २१ : पोलक भी कूद पड़े हुई थी, इसलिए उन्हें फिनिक्सका जीवन जरा भी अटपटा या कठिन न मालूम हुन्मा, बल्कि स्वाभाविक और रुचिकर जान पड़ा। पर खुद मैं ही उन्हें वहां अधिक समयतक नहीं रख सका। मि० रीचने विलायतमें रहकर कानूनके अध्ययनको पूरा करनेका निश्चय किया। दफ्तरके कामका बोझा मुझ अकेलेके बसका न था। इसलिए मैंने पोलकले दफारमें रहने और वकालत करने के लिए कहा। इसमें मैंने यह सोचा था कि उनके वकील हो जानेके बाद अंतको हम दोनों फिनिक्स में आ पहुंचेंगे। हमारी ये सब कल्पनाएं अंतको झूठी साबित हुई; परंतु पोलकाके स्वभावमें एक प्रकारकी ऐसी सरलता थी कि जिसपर उनका विश्वास बैठ जाता उसके नाथ वह हुज्जत न करते और उसकी सम्मतिके अनुकूल चलने का प्रयत्न करते । पोलकने नुझे लिखा-- "मुझे तो यही जीवन पसंद है और मैं यहीं सुखी हूं। मुझे आशा है कि हम इस संस्थाका खूब विकास कर सकेंगे। परंतु यदि आपका यह खयाल हो कि मेरे वहां पानेसे हमारे आदर्श जल्दी सफल होंगे, तो मैं पानेको भी तैयार हूं।" मैंने इस पत्रका स्वागत किया और पोलक फिनिक्स छोड़कर जोहान्सबर्ग आये और मेरे दफ्तरमें मेरे सहायकका काम करने लगे। इसी समय मेकिनटायर नामक एक स्कॉच युवक हमारे साथ शरीक हुआ। वह थियॉसफिस्ट था और उसे मैं कानूनकी परीक्षाकी तैयारी में मदद करता था। मैंने उसे पोलकका अनुकरण करनेका निमंत्रण दिया था । इस तरह फिनिक्सके आदर्शको शीघ्र प्राप्त कर लेनेके शुभ उद्देश्य से मैं उसके विरोधक जीवनमें दिन-दिन गहरा पैठता गया और यदि ईश्वरीय संकेत दूसरा न होता तो सादे जीवनके वहाने फैलाये इस मोहजालमें मैं खुद ही फंस जाता। परंतु हमारे आदर्शकी रक्षा इस तरह हुई कि जिसकी हममेंसे किसीने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन उस प्रसंगका वर्णन करने के पहले अभी कुछ और अध्याय लिखने पड़ेंगे।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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