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अध्याय : हाई स्कूल मेरा अध्ययन चलता रहा। हाईस्कूल में मैं बुद्धू नहीं माना जाता था। शिक्षकोंका प्रेम हमेशा संपादन करता रहा। हर साल मां-बाप को विद्यार्थीकी पढाई तथा चाल-चलनके संबंध में स्कूल प्रमाण-पत्र भेजे जाते। उनमें किसी बार मेरी पढ़ाई या चाल-चलनकी शिकायत नहीं की गई। दूसरे दरजेके बाद तो इनाम भी पाये और पांचवें तथा छठे दरजे में तो क्रमश: ४) और १०) मासिककी छात्रवृत्तियां भी मिली थीं। छात्र-वृत्ति मिलने में मेरी योग्यताकी अपेक्षा तकदीरने ज्यादा मदद की। छात्रवृत्तियां सव लड़कोंके लिए नहीं थीं, सिर्फ सोरट प्रांतके विद्यार्थियोंके लिए ही थीं और उस समय चालीस-पचास विद्यार्थियोंकी कक्षामें सोरठ-प्रांतके विद्यार्थी बहुत नहीं हो सकते थे ।
अपनी तरफसे तो मुझे याद पड़ता है कि मैं अपनेको बहुत योग्य नहीं समझता था। इनाम अथवा छात्रवृति मिलती तो मुझे आश्चर्य होता; परंतु हां, अपने आचरणका मुझे बड़ा खयाल रहता था। सदाचारमें यदि चूक होती तो मुझे रोना आ जाता । यदि मुझसे कोई ऐसा काम बन पड़ता कि जिसके लिए शिक्षकको उलाहना देना पड़े, अथवा उनका ऐसा खयाल भी हो जाम, तो यह मेरे लिए असह्य हो जाता। मुझे याद है कि एक बार में पिटा भी था। मुझे इस बातपर तो दुःख न हुन्ना कि पिटा; परंतु इस बातका महा दुःख हुआ कि मैं दंडका पात्र समझा गया। मैं फूट-फूटकर रोया। यह घटना पहली वाली कहानी है। दूसरी घटना सातवें दरजेकी है। उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेडमास्टर थे। वह विद्यार्थी-प्रिय थे। क्योंकि वह न निकलोका पालन करवाते, विधिपूर्वक काम करते और काम लेते तथा पढ़ाई अच्छी करते । उन्होंने अंचे दरजेके पियाशियों लिए कसरत-क्रिकेट लाजिमी कर दी थी। लेकिन मुझे उनसे अरुचि थी। लाजिमी होने के पहले तो मैं कसरत, क्रिकेट या फुटबॉलमें कभी न जाता था। न जानेमें मेरा झेपन भी एक कारण था। किंतु अब में देखता हूं कि कसरतकी वह अरुचि मेरी भूल थी। उस समय मेरे एसे गलत विचार थे शिकार लगाना गाय कोई संबंध नहीं । कार ने समझा कि व्यायाम अर्थात शारीरिक शिक्षाके लिए भी विधायन उतना ही स्थान होना चाहिए जिाना मानगि शिक्षाको है।
. फिर भी मुझे गहना कि कसरतमें न जाने वाले कोई नुकसान