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________________ अध्याय २१ : पोलक भी कूद पड़े ३०६ फैला। इस संस्थाके जीवन में ऐसा भी एक युग आगया था, जब जानबूझकर एंजिन बंद रक्खा गया था और दृढ़तापूर्वक हाथके पहिये से ही काम चलाया गया था । मैं कह सकता हूं कि फिनिक्स के जीवन में यह ऊंचे-से-ऊंचा नैतिक काल था। पोलक भी कूद पड़े फिनिक्स जैसी संस्था स्थापित करनेके बाद मैं खुद थोड़े ही समय उसमें रह सका। इस बातपर मुझे हमेशा बड़ा दुःख रहा है। उसकी स्थापनाके समय मेरी यह कल्पना थी कि मैं भी वहीं वसुंगा। वहीं रहकर जो-कुछ सेवा हो सकेगी वह करूंगा और फिनिक्सकी सफलताको ही अपनी सेवा समझंगा। परंतु इन विचारोंके अनुसार निश्चित व्यवहार न हो सका। अपने अनुभवमें मैंने यह बहुत बार देखा है कि हम सोचते कुछ हैं और हो कुछ और जाता है। परंतु इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया है कि जहां सत्यकी ही चाह और उपासना है वहां परिणाम चाहे हमारी धारणाके अनुसार न निकले, कुछ और ही निकले, परंतु वह अनिष्ट-- बुरा--नहीं होता और कभी-कभी तो प्राशासे भी अधिक अच्छा हो जाता है। फिनिक्समें जो अकल्पित परिणाम पैदा हुए और फिनिक्सको जो अकल्पित रूप प्राप्त हुआ, वह मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि अनिष्ट नहीं । हां, यह बात अलबत्ता निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि उन्हें अधिक अच्छा कह सकते हैं या नहीं। हमारी धारणा यह थी कि हम लोग खुद मिहनत करके अपनी रोजी कमायेंगे, इसलिए छापेखानेके आसपास हरएक निवासीको तीन-तीन एकड़ जमीनका टुकड़ा दिया गया। इसमें एक टुकड़ा मेरे लिए भी नापा गया । हम सब लोगोंकी इच्छा के खिलाफ उनपर टीनके घर बनाये गये । इच्छा तो हमारी यह थी कि हम मिट्टी और फूसके, किसानों के लायक, अथवा ईंटके मकान बनावें; पर वह न हो सका। उसमें अधिक रुपया लगता था और अधिक समय भी जाता था। फिर सब लोग इस बातके लिए आतुर थे कि कब अपने घर बसा लें और काममें लग जायं।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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