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आत्म-कथा : भाग ४
उनको राजी कर लेना बड़ा कठिन काम था । परंतु कितने ही लोगोंको मेरी बात जंच गई। इन सबमें से आज तो मगनलाल गांधीका नाम मैं चुनकर पाठकों सामने रखता हूं, क्योंकि दूसरे लोग जो राजी हुए थे, वे थोड़े-बहुत समय फिनिक्समें रहकर फिर धन-संचयके फेर में पड़ गये । मगनलाल गांधी तो अपना काम छोड़कर जो मेरे साथ आये, सो अबतक रह रहे हैं और अपने बुद्धि बलसे, त्यागसे, शक्तिसे एवं अनन्य भक्ति भावसे मेरे प्रांतरिक प्रयोगों में मेरा साथ देते हैं एवं मेरे मूल साथियों में आज उनका स्थान सबमें प्रधान है । फिर एक स्वयं शिक्षित कारी - गरके रूपमें तो उनका स्थान मेरी दृष्टिमें अद्वितीय है ।
इस तरह १९०४ ईस्वी में फिनिक्सकी स्थापना हुई और विघ्नों और कठिनाइयोंके रहते हुए भी फिनिक्स संस्था एवं 'इंडियन श्रोपीनियन' दोनों आजतक चल रहे हैं । परंतु इस संस्थाके प्रारंभ - कालकी मुसीबतें और उस समयकी आशा-निराशाएं जानने लायक है । उनपर हम अगले श्रध्यायमें विचार करेंगे ।
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पहली रात
fefereen 'इंडियन श्रोपीनियन' का पहला अंक प्रकाशित करना ग्रासान साबित न हुआ । यदि दो बातों में मैंने पहले हीसे सावधानी न रक्खी होती तो अंक एक सप्ताह बंद रहता या देरसे निकलता । इस संस्था में मेरी यह इच्छा कम ही रही थी कि एंजिनसे चलने वाले यंत्रादि मंगाये जायं । मेरी भावना यह थी कि जब हम खेती भी खुद हाथोंसे ही करनेकी चाह रखते हैं तब फिर छापेकी कल भी ऐसी ही लाई जाय जो हाथसे चल सके । पर उस समय यह अनुभव हुआ कि यह बात सध न सकेगी । इसलिए प्रॉयल एंजिन मंगाया गया था । परंतु मुझे यह खटका रहा कि कहीं वहांपर यह एंजिन बंद न हो जाय। सो मैंने वेस्टको सुझाया ' कि ऐसे समय के लिए कोई ऐसे काम चलाऊ साधन भी हम अभी से जुटा रक्खें तो अच्छा । इसलिए उन्होंने हाथसे चलानेका भी एक पहिया मंगा रक्खा था : और ऐसी तजवीज कर रक्खी थी कि मौका पड़नेपर उससे छापेकी कल चलाई जा सके। फिर 'इंडियन ओपीनियन' का आकार दैनिकपत्रके बराबर लंबा-चौड़ा