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________________ आत्म-कथा : भाग ४ एक बार ग्रावश्यकता पड़नेपर मुझसे उसने ४० पौंड उधार लिये थे-और पिछले साल सारी रकम उसने मुझे लौटा दी । त्याग-भाव उसका जैसा तीव्र था वैसी ही उसकी हिम्मत भी जबरदस्त थी ! मुझे स्फटिककी तरह पवित्र और वीरता में क्षत्रियको भी लज्जित करनेवाली जिन महिलायोंसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है उनमें मैं इस बालिकाकी गिनती करता हूं । आज तो वह प्रौढ़ कुमारिका है । उसकी वर्तमान मानसिक स्थिति से मैं परिचित नहीं हूं; परंतु इस बालिकाका अनुभव मेरे लिए सदा एक पुण्यस्मरण रहेगा और यदि मैं उसके संबंध में अपना अनुभव न प्रकाशित करूं तो मैं सत्यका द्रोही बनूंगा । काम करने में वह न दिन देखती थी न रात । रातमें जब भी कभी हो केली चली जाती और यदि मैं किसीको साथ भेजना चाहता तो लाल-पीली प्रांखें दिखाती । हजारों जवांमर्द भारतीय उसे प्रदरकी दृष्टिसे देखते थे और उसकी बात मानते थे। जब हम सब जेल में थे, जबकि जिम्मेदार आदमी शायद ही कोई बाहर रहा था तब उस अकेली ने सारी लड़ाईका काम सम्हाल लिया था । लाखोंका हिसाब उसके हाथमें, सारा पत्र-व्यवहार उसके हाथमें और 'इंडियन ओपिनियन' भी उसीके हाथमें -- ऐसी स्थिति आ पहुंची थी; पर वह थकना नहीं जानती थी । मिस इलेशिनके बारेमें लिखते हुए मैं थक नहीं सकता; पर यहां तो सिर्फ गोखलेका प्रमाणपत्र देकर इस अध्यायको समाप्त करता हूं | गोखलेने मेरे तमाम साथियोंसे परिचय कर लिया था और इस परिचयसे उन्हें बहुतों से बहुत संतोष हुआ था। उन्हें सबके चरित्र के बारेमें अंदाज लगाने का शौक था । मेरे तमाम भारतीय और यूरोपीय साथियोंमें उन्होंने मिस श्लेशिनको पहला नंबर दिया था । " इतना त्याग, इतनी पवित्रता, इतनी निर्भयता और इतनी कुशलता मैंने बहुत कम लोगों में देखी है । मेरी नजर में तो मिस श्लेशिनका नंबर तुम्हारे सब साथियों में पहला है । 33 २८६
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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