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अध्याय ११ : अंग्रेजों से गाढ़ परिचय
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प्रेरणा ही फल हैं ।
अंतरात्माको न तो मैंने देखा है, न जाना है । संसारकी ईश्वरपर जो श्रद्धा है उसे मैंने अपनी बनाली है । यह श्रद्धा ऐसी नहीं है जो किसी प्रकार मिटाई जा सके | इसलिए अब वह मेरे नजदीक श्रद्धा नहीं; बल्कि अनुभव हो गया हैं । फिर भी अनुभव के रूपमें उसका परिचय कराना एक प्रकारसे सत्यपर प्रहार करता हूँ । इसलिए यही कहना शायद अधिक उचित होगा कि उसके शुद्ध रूपका परिचय देनेवाला शब्द मेरे पास नहीं है । मेरी यह धारणा है कि इसी श्रदृष्ट अंतरात्माके वशवत होकर मैं यह कथा लिख रहा हूं ।
पिछला अध्याय जब मैंने शुरू किया तब उसका नाम रखा था -- 'अंग्रेजोंसे परिचय'; परंतु उस अध्यायको लिखते हुए मैंने देखा कि उस परिचयका वर्णन करने के पहले मुझे 'पुण्यस्मरण' लिखने की आवश्यकता है । तब 'पुण्यस्मरण' लिखा और बादको उसका वह पहला नाम बदलना पड़ा ।
अव इस प्रकरणको लिखते हुए फिर एक नया धर्म-संकट पैदा हो गया हैं । अंग्रेजोंके परिचयों का वर्णन करते समय क्या-क्या लिखूं और क्या-क्या न लिखूं, यह महत्त्वका प्रश्न उपस्थित हो गया है । यदि आवश्यक बात न लिखी जाय तो सत्यको दाग लग जानेका अंदेशा है; परंतु संभव है कि इस कथाका लिखना भी आवश्यक न हो ऐसी दशामें आवश्यक और अनावश्यक झगड़ेका न्याय सहसा कर देना कठिन हो जाता है ।
आत्मकथाएं इतिहासके रूपमें कितनी अपूर्ण होती हैं और उनके लिखने में कितनी कठिनाइयां आती हैं-- इसके विषय में पहले मैंने कहीं पढ़ा था; पर उसका अर्थ मैं आज अधिक अच्छी तरह समझ रहा हूं । सत्यके प्रयोगोंकी इस श्रात्मकथामें मैं वे सभी बातें नहीं लिख रहा हूं जिन्हें मैं जानता हूं । कौन कह सकता है। कि सत्यको दर्शाने के लिए मुझे कितनी बातें लिखनी चाहिएं। या यों कहें कि एकतर्फा अधूरे सबूतकी न्याय - मंदिरमें क्या कीमत हो सकती है ? इन पिछले प्रकरणोंपर यदि कोई फुरसतवाला आदमी मुझमे जिरह करने लगे तो न जाने कितनी रोशनी इन प्रकरणांपर पड़ सकती है ? और यदि फिर एक आलोचककी दृष्टिसे कोई उसकी छानबीन करे तो वह कितनी ही 'पोल' खोलकर दुनियाको हंसा सकता है और खुद फूलकर कुप्पा बन सकता है ।