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________________ २८० आत्म-कथा : भाग ४ यहां तो सिर्फ इतना बताना काफी है कि ज्यों-ज्यों मैं निर्विकार होता गया त्यों-त्यों मेरा घर-संसार शांत, निर्मल और सुखी होता गया और अब भी होता जाता है । इस पुण्य स्मरण से कोई यह न समझ लें कि हम आदर्श दंपती हैं, अथवा मेरी धर्म-पत्नीमें किसी किस्मका दोष नहीं है, अथवा हमारे आदर्श अब एक हो गये हैं । कस्तूरबाई अपना स्वतंत्र आदर्श रखती हैं या नहीं, यह तो वह बेचारी खुद भी शायद न जानती होंगी। बहुत संभव है कि मेरे आचरणकी बहुतेरी बातें उसे अब भी पसंद न प्राती हों; परंतु अब हम उनके बारेमें एक-दूसरेसे चर्चा नहीं करते, करने में कुछ सार भी नहीं है । उसे न तो उसके मां-वापने शिक्षा दी है, न मैंने ही । जब समय था, शिक्षा दे सका; परंतु उसमें एक गुण बहुत बड़े परिमाण में है, जो दूसरी कितनी ही हिंदू स्त्रियोंमें थोड़ी-बहुत मात्रामें पाया जाता है | मनसे ही या बे - मनसे, जानमें हो या अनजान में मेरे पीछे-पीछे चलने में उसने अपने जीवनकी सार्थकता भानी है और स्वच्छ जीवन बितानेके मेरे प्रयत्न में उसने कभी बाधा नहीं डाली । इस कारण यद्यपि हम दोनोंकी बुद्धि-शक्तिमें बहुत अंतर है, फिर भी मेरा खयाल है कि हमारा जीवन संतोषी, सुखी और ऊर्ध्वगामी है। ११ अंग्रेजोंसे गाढ़ परिचय इस अध्यायतक पहुंचनेपर, अब ऐसा समय आ गया हैं जब मुझे पाठकों को बताना चाहिए कि सत्यके प्रयोगोंकी यह कथा किस तरह लिखी जा रही है । जब कथा लिखनेकी शुरुआत की थी तब मेरे पास उसका कोई ढांचा तैयार न था । न अपने साथ पुस्तकें, डायरी अथवा दूसरे कागज पत्र रखकर ही इन अध्यायोंको लिख रहा हूं। जिस दिन लिखने बैठता हूं उस दिन अंतरात्मा जैसी प्रेरणा करती है, वैसा लिखता जाता हूं। यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि जो किया मेरे अंदर चलती रहती है वह अंतरात्माकी ही प्रेरणा है; परंतु वरसोंसे में जो अपने छोटे-छोटे और बड़े-बड़े कहे जानेवाले कार्य करता आया हूं उनकी जब छानबीन करता हूं तो मुझे यह कहना अनुचित नहीं मालूम होता कि वे अंतरात्माकी
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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