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अध्याय १ : किया-कराया स्वाहा
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खड़ी हुई कि मैं प्रिटोरिया किस तरह पहुंचूं ? मेरे समयपर पहुंच सकनेकी इजाजत लेने का काम हमारे लोगोंसे हो नहीं सकता था ।
वोर युद्ध के बाद ट्रांसवाल करीब-करीब ऊजड़ हो गया था। वहां न खाने-पीने के लिए अनाज रह गया था, न पहनने प्रोढ़नेके लिए कपड़े ही । बाजार खाली और दुकानें बंद मिलती थीं । उनको फिरसे भरना और खुला करना था और यह काम तो धीरे-ही-धीरे हो सकता था और ज्यों-ज्यों माल • आता जाता त्यों-ही-त्यों उन लोगोंको, जो घरबार छोड़कर भाग गये थे, श्राने दिया जा सकता था । इस कारण प्रत्येक ट्रांसवालवासीको परवाना लेना पड़ता था । अब गोरे लोगोंको तो परवाना मांगते ही तुरंत मिल जाता; परंतु हिंदुस्तानियोंको बड़ी मुसीबतका सामना करना पड़ता था ।
लड़ाईके दिनोंमें हिंदुस्तान और लंकासे बहुतेरे अफसर और सिपाही दक्षिण अफ्रीका में आ गये थे । उनमेंसे जो लोग वहीं बसना चाहते थे उनके लिए सुविधा कर देना ब्रिटिश अधिकारियोंका कर्त्तव्य माना गया था । इधर एक नवीन अधिकारी - मंडलकी रचना उन्हें करनी थी । सो ये अनुभवी कर्मचारी सहज ही उनके काम आ गये । इन कर्मचारियोंकी तीव्र बुद्धिने एक नये महकमेकी ही सृष्टि कर डाली और इस काम में वे अधिक पटु तो थे ही । हब्शियोंके लिए ऐसा एक अलग महकमा पहले ही से था, तो फिर इन लोगोंने अकल भिड़ाई कि एशियावासियोंके लिए भी अलग महकमा क्यों न कर लिया जाय ? सव उनकी इस दलील कायल हो गये । यह नया महकमा मेरे जानेसे पहले ही खुल चुका था और धीरे-धीरे अपना जाल फैला रहा था । जो अधिकारी भागे हुए लोगों को परवाना देते थे, वे ही सबको दे सकते थे, परंतु यह उन्हें पता कैसे चल सकता है कि एशियावासी कौन है ? यदि इस नवीन महकमेकी सिफारिश पर ही उसको परवाना दिया जाय तो उस अधिकारीकी जिम्मेदारी कम हो जाय और उसके कामका बोझ भी कुछ घट जाय, यह दलील पेश की गई। बात दरअसल यह थी कि इस नये महकमेको कुछ कामकी और कुछ दामकी ( धनकी ) जरूरत थी । यदि काम न हो तो इस महकमेकी आवश्यकता सिद्ध नहीं हो सकती और उसे बंद करना पड़ता । तो इसलिए उसे यह काम सहज ही मिल गया ।
तरीका यह था कि हिंदुस्तानी पहले इस महकमे में अर्जी दें । फिर बहुत