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अध्याय २६ : 'जल्दी लौटो'
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संस्करण दस हजारका छपवाया। उनका बहुतांश निकल गया; पर मैंने देखा कि दस हजारकी जरूरत न थी, लोगोंके उत्साहको मैंने अधिक प्रांक लिया था । मेरे भाषणका असर तो अंग्रेजी बोलनेवालोंपर ही हुआ था और अकेले मदरासमें अंग्रेजीदां लोगोंके लिए दस हजार प्रतियोंकी आवश्यकता न थी ।
यहां मुझे बड़ी से बड़ी सहायता स्वर्गीय जी० परमेश्वरन पिल्ले से मिली । वह 'मदरास स्टैंडर्ड ' के संपादक थे । उन्होंने इस प्रश्नका अच्छा अध्ययन कर लिया था । वह बार-बार अपने दफ्तर में बुलाते और सलाह देते । 'हिंदू' के जी० सुब्रह्मण्यम् से भी मिला था । उन्होंने तथा डा० सुब्रह्मण्यम्ने भी पूरी-पूरी हमदर्दी दिखाई; परंतु जी० परमेश्वरन् पिल्लेने तो अपना अखबार इस काम के लिए मानो मेरे हवाले ही कर दिया और मैंने भी दिल खोलकर उसका उपयोग किया । सभा पाच्याप्पाहाल में हुई थी और डा० सुब्रह्मण्यम् अध्यक्ष हुए थे, ऐसा मुझे स्मरण है ।
मदरासमें मैंने बहुतों का प्रेम और उत्साह इतना देखा कि यद्यपि वहां सबके साथ मुख्यतः अंग्रेजीमें ही बोलना पड़ता था फिर भी, मुझे घरके जैसा ही मालूम हुआ । सच है, प्रेम किन बंधनोंको नहीं तोड़ सकता ।
२६ 'जल्दी लौटो'
मदराससे मैं कलकत्ता गया । कलकत्ते में मेरी कठिनाइयोंकी सीमा न रही। वहां 'ग्रैंड ईस्टर्न' होटलमें उतरा । न किसीसे जान न पहचान । होटल में 'डेली टेलीग्राफ के प्रतिनिधि मि० एलर थार्पसे पहचान हुई । वह रहते थे बंगाल में । वहां उन्होंने मुझे बुलाया । उस समय उन्हें पता न था कि होटलके दीवानखाने में कोई हिंदुस्तानी नहीं जा सकता । बादको उन्हें इस रुकावटका हाल मालूम हुआ । इसलिए वह मुझे अपने कमरेमें ले गये । भारतवासियों के प्रति स्थानीय अंग्रेजोंके इस हेय-भावको देखकर उन्हें खेद हुआ। दीवानखानेमें न ले जा सकनेके लिए उन्होंने मुझसे माफी मांगी ।
बंगालके देव ' सुरेन्द्रनाथ बनर्जी बो मिलना ही था। उनसे जब