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________________ अध्याय २८ : पूना और मद्रासमें श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।' बड़े-चढ़े पर-धर्मसे घटिया स्वधर्म अच्छा है। स्वधर्म में मौत भी उत्तम है, किंतु पर-धर्म तो भयकर्ता है । २८ पूना और मद्रासमें सर फिरोजशाहने मेरा रास्ता सरल कर दिया। बंबईसे मैं पूना गया। मैं जानता था कि पूनामें दो पक्ष थे; पर मुझे सबकी सहायताकी जरूरत थी पहले मैं लोकमान्यसे मिला। उन्होंने कहा-- दलोंकी सहायता प्राप्त करनेका आपका विचार बिलकुल ठीक है। आपके प्रश्नके संबंधमें मत-भेद हो नहीं सकता; परतु आपके कामके लिए किसी तटस्थ सभापति की आवश्यकता है। आप प्रोफेसर भांडारकरसे मिलिए । यों तो वह आजकल किसी हलचलमें पड़ते नहीं हैं; पर शायद इस कामके लिए 'हां' करलें। उनसे मिलकर नतीजेकी खबर मुझे कीजिएगा। मैं आपको पूरी-पूरी सहायता देना चाहता हूं। आप प्रोफेसर गोखलेसे भी अवश्य मिलिएगा। मुझसे जब कभी मिलनेकी इच्छा हो जरूर पाइएगा ।" - लोकमान्यके यह मुझे पहले दर्शन थे। उनकी लोक-प्रियताका कारण मै तुरंत समझ गया । यहांसे मैं गोखलेके पास गया। वह फर्ग्युसन कालेजमें थे। बड़े प्रेमसे मुझसे मिले और मुझे अपना बना लिया। उनका भी यह प्रथम ही परिचय था; पर ऐसा मालूम हुआ मानो हम पहले मिल चुके हों। सर-फिरोजशाह तो मुझे हिमालय-जैसे मालूम हुए; लोकमान्य समुद्र की तरह मालूम हुए। गोखले गंगा की तरह मालूम हुए; उसमें मैं नहा सकता था। हिमालयपर चढ़ना मुश्किल है, समुद्रमें इबनेका भय रहता है। पर गंगाकी गोदीमें खेल सकते हैं, उसमें डोंगीपर 'गीता अध्याय ३, श्लोक ३५
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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