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________________ १६२ आत्म-कथा: भाग २ मौलिक भेद थे, उन्हें हम दोनों जानते थे। चर्चाद्वारा उन भेदोंको मिटा देना असंभव था। जहां-जहां उदारता, सहिष्णुता और सत्य है, वहां भेद भी लाभदायक होते हैं। मुझे इस दंपतीकी नम्रता, उद्यमशीलता और कार्य-परायणता बड़ी प्रिय थी। इससे हम बार-बार मिला करते । इस संबंधने मुझे जागरुक कर रक्खा । धार्मिक पठनके लिए जो फुरसत प्रिटोरियामें मुझे मिल गई थी वह तो अब असंभव थी; परंतु जो-कुछ भी समय मिल जाता उसका उपयोग में स्वाध्यायमें करता; मेरा पत्र-व्यवहार बराबर जारी था। रायचंदभाई मेरा पथ-प्रदर्शन कर रहे थे। किसी मित्रने मुझे इस संबंधमें नर्मदाशंकर की 'धर्मविचार' नामक पुस्तक भेजी। उसकी प्रस्ताबनासे मुझे सहायता मिली। नर्मदाशंकरके विलासी जीवनकी बातें सुनी थीं। प्रस्तावनामें उनके जीवन में हुए परिवर्तनोंका वर्णन मैंने पढ़ा और उसने मुझे आकर्षित किया, जिससे कि उस पुस्तकके प्रति मेरा आदर-भाव बढ़ा। मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा। मैक्समूलरकी पुस्तक 'हिंदुस्तानसे हमें क्या शिक्षा मिलती है ? ' मैंने बड़ी दिलचस्पीसे पढ़ी। थियोसोफिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदोंका अनुवाद पढ़ा। उससे हिंदू-धर्मके प्रति मेरा आदर बढ़ा। उसकी खूबी मैं समझने लगा, परंतु इससे दूसरे धर्मों के प्रति मेरे मन में अभाव न उत्पन्न हुआ। वाशिंगटन इरविंग-कृत मुहम्मदका चरित और कार्लाइल-रचित 'मुहम्मद-स्तुति ' पढ़ी। फलतः पैगंबर साहबके प्रति भी मेरा आदर बढ़ा। 'जरथुस्तके वचन' नामक पुस्तक भी पढ़ी। इस प्रकार मैंने भिन्न-भिन्न संप्रदायोंका कम-ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया । इससे आत्म-निरीक्षण बढ़ा। जो-कुछ पढ़ा या पसंद हुआ उसपर चलनेकी आदत बढ़ी। इससे हिंदू-धर्ममें वर्णित प्राणायाम-विषयक कितनी ही क्रियायें, पुस्तकें पढ़कर मैं जैसी समझ सका था, शुरू की, पर कुछ सिलसिला जमा नहीं। मैं आगे न बढ़ सका। सोचा कि जब भारत लौटुंगा तब किसी शिक्षकसे सीख लुगा, पर वह अबतक पूरा न हो पाया । टाल्स्टायकी पुस्तकोंका स्वाध्याय बढ़ाया। उनकी ‘गोस्पेल .. इन 'गुजरातके एक प्रसिद्ध कवि ।
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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