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अध्याय २० : बालासुंदरम्
१५७ था, गिरमिट रद कर दे, या दूसरेके नामपर चढ़ा दे अथवा मालिक खुद उसे छोड़ने के लिए तैयार होजाय । मैं मालिकसे मिला और उससे कहा--- " मैं आपको सजा कराना नहीं चाहता। आप जानते हैं कि उसे सख्त चोट पहुंची है। यदि आप उसकी गिरमिट दूसरेके नाम चढ़ानेको तैयार होते हों तो मुझे संतोष हो जायगा।" मालिक भी यही चाहता था। फिर मैं उस रक्षक अफसरसे मिला। उसने भी रजामंदी तो जाहिर की; पर इस शर्तपर कि मैं बालासुंदरके लिए नया मालिक ढूंढ दू।
अब मुझे नया अंग्रेज मालिक खोजना था। भारतीय लोग गिरनिटियोंको नहीं रख सकते थे। अभी थोड़े ही अंग्रेजोंसे मेरी जान-पहचान हो पाई थी। फिर भी एकसे जाकर मिला । उसने मझपर मेहरबानी करके बालासुंदरम्को रखना मंजूर कर लिया। मैंने कृतज्ञता प्रदर्शित की। मजिस्ट्रेटने मालिकको अपराधी करार दिया और यह बात नोट कर ली कि मुजरिमने बालासुंदरम्की गिरमिट दूसरेके नाम पर चढ़ा देना स्वीकार किया है ।
दामादरम मामलेकी बात गिरमिटियों में चारों ओर फैल गई और मैं उनके बंधुके नाभसे प्रसिद्ध हो गया। मुझे यह संबंध प्रिय हुआ। फलतः मेरे दफ्तर में गिरमिटियोंकी बाढ़ आने लगी और मुझे उनके सुख-दुःख जाननेकी बड़ी सुविधा मिल गई।
बालासुंदरम्के मामलेकी ध्वनि ठेठ मदरासतक जा पहुंची। उस इलाकेके जिन-जिन जगहोंसे लोग नेटालकी गिरमिटमें गये उन्हें गिरमिटियोंने इस बातका परिचय कराया। मामला कोई इतना महत्त्वपूर्ण न था; फिर भी लोगोंको यह बात नई मालूम हुई कि उनके लिए कोई सार्वजनिक कार्यकर्ता तैयार हो गया। इस बातसे उन्हें तसल्ली और उत्साह मिला।
मैंने लिखा है कि बालासुंदरम् अपना फेंटा उतारकर उसे अपने हाथ में रखकर मेरे सामने आया था। इस दृश्यमें बड़ा ही करुण-रस भरा हुआ है। यह हमें नीचा दिखानेवाली बात है। मेरी पगड़ी उतारनेकी घटना पाठकोंको मालूम ही है । कोई भी गिरमिटिया तथा दूसरा नवागत हिंदुस्तानी किसी गोरेके यहां जाता तो उसके सम्मानके लिए पगड़ी उतार लेता--फिर टोपी हो, या पगड़ी, अथवा फेंटा हो। दोनों हाथोंसे सलाम करना काफी न था। बाला