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________________ १५३ अध्याय १६ : नेटाल इंडियन कांग्रेस भास एक पौंड लिखाया। यह मेरे लिए बीमा करने-जैसा था; पर मैंने सोचा कि जहां मेरा इतना खर्च-वर्च चलेगा यहां प्रतिमास एक पौंड क्यों भारी पड़ेगा? और ईश्वरने मेरी नाव चलाई। एक पौंडवालोंकी संख्या खासी हो गई। दस शिलिंगवाले उससे भी अधिक हुए। इसके अलावा बिना सभ्य हुए भेंटके तौरपर जो लोग दे दें सो अलग । अनुभवने बताया कि उगाही किये बिना कोई चंदा नहीं दे सकता। डरबनसे बाहरवालों के यहां बार-बार जाना असंभव था। इससे मुझे हमारी 'आरंभ-शूरता'का परिचय मिला । डरबन में भी बहुत चलकर खाने पड़ते, तब कहीं जाकर चंदा मिलता। मैं मंत्री था, रुपया वसूल करनेका जिम्मा मुझ पर था। मुझे अपने मुंशीको सारा दिन चंदावसूली में लगाये रहने की नौबत आ गई। वह बेचारा भी उकता उठा । मैंने सोचा कि मासिक नहीं, वार्षिक चंदा होना चाहिए और वह भी सबको पेशगी दे देना चाहिए। बस, सभा की गई और सबने इस बातको पसंद किया। तय हुआ कि कम-से-कम तीन पौंड बार्षिक चंदा लिया जाय । इससे वसूलीका काम आसान हो गया ।। आरंभमें ही मैंने यह सीख लिया था कि सार्वजनिक काम कभी कर्ज लेकर नहीं चलाना चाहिए। और बातोंमें भले ही लोगोंका विश्वास कर लें, पर पैसेकी बातमें नहीं किया जा सकता। मैंने देख लिया था कि वादा कर चुकनेपर भी देनेके धर्मका पालन कहीं भी नियमित रूपसे नहीं होता। नेटालके हिंदुस्तानी इसके अपवाद न थे। इस कारण बाल इंडियन कांग्रेस ने कभी कर्ज करके कोई काम नहीं किया । सभ्य बनाने में साथियोंने असीम उत्साह प्रकट किया था। उसमें उनकी बड़ी दिलचस्पी हो गई थी। उसके कार्य से अनमोल अनुभव मिलता था। बहुतेरे लोग खुशी-खुशी नाम लिखवाते और चंदा दे देते। हां, दूर-दूरके गांवोंमें जरा मुश्किल पेश आती। लोग सार्वजनिक कामकी महिमा नहीं समझते थे। कितनी ही जगह तो लोग अपने यहां आनेका न्यौता भेजते, अग्रसर व्यापारीके यहां ठहराते; परंतु इस भ्रमणमें हमें एक जगह शुरूआतमें ही दिक्कत पेश हुई। यहांसे छ: पौंड मिलने चाहिए थे; पर वह तीन पौंउसे आगे न बढ़ते थे। यदि उनसे इतनी ही रकम लेते तो औरोंये इससे अधिक न मिलती। ठहराये हम उन्हींके यहां गये
SR No.100001
Book TitleAtmakatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandas Karamchand Gandhi, Gandhiji
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1948
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationInterfaith & Interfaith
File Size70 MB
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