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आत्म-कथा : भाग ३
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नेटाल इंडियन कांग्रेस वकील-सभाके विरोधने दक्षिण अफरीकामें मेरे लिए एक विज्ञापनका काम कर दिया। कितने ही अखबारोंने मेरे खिलाफ उठाये गये विरोधकी निंदा की और वकीलोंपर ईर्ष्याका इलजाम लगाया। इस प्रसिद्धिसे मेरा काम कुछ अंशमें अपने-आप सरल हो गया ।
वकालत करना मेरे नजदीक गौण बात थी और हमेशा गीण ही रही। नेटालमें अपना रहना सार्थक करने के लिए मुझे सार्वजनिक काममें ही तन्मय हो जाना जरूरी था। भारतीय मताधिकार-प्रतिरोधक कानूनके विरोधमें आवाज उठाकर--महज दरख्वास्त भेजकर चुप न बैठा जा सकता था। उसका आंदोलन होते रहने से ही उपनिवेशोंके मंत्रीपर असर हो सकता था। इसके लिए एक संस्था स्थापित करनेकी आवश्यकता दिखाई दी। अतः मैंने अब्दुल्ला सेठके साथ मशविरा किया। दूसरे साथियोंसे भी मिला और हम लोगोंने एक सार्वजनिक संस्था खड़ी करनेका निश्चय किया ।
उसका नाम रखने में कुछ धर्म-संकट अाया। यह संस्था किसी पक्षका पक्षपात नहीं करना चाहती थी। महासभा (कांग्रेसका) नाम कंजरवेटिव (प्राचीन) पक्षमें अरुचिकर था, यह मुझे मालूम था, परंतु महासभा तो भारतका प्राण थी। उसकी शक्तिको बढ़ाना जरूरी था। उसके नामको छिपाने में अथवा धारण करते हुए संकोच रखने में कायरताकी गंध आती थी। इसलिए मैंने अपनी दलीलें पेश करके संस्थाका नाम 'कांग्रेस' ही रखने का प्रस्ताव किया । और २२ मई, १८९४को नेटाल इंडियन कांग्रेस का जन्म हुआ।
दादा अब्दुल्लाका बैठकखाना लोगोंसे भर गया था। उन्होंने उत्साहके साय इस संस्थाका स्वागत किया। विधान बहुत सादा रक्खा था, पर चंदा भारी रक्खा गया था। जो हर मास कम-से-कम पांच शिलिंग देता वही सभ्य हो सकता था । अनिक लोग राजी-खुशीसे जितना अधिक दे सकें, चंदा दें, यह तय हुआ। अब्दुल्ला सेठसे हर मास दो पौंड लिखाये । दूसरे दो सज्जनोंने भी इतना ही चंदा लिखाया। खुद भी सोचा कि मैं इसमें संकोच कैसे करूं ? इसलिए मैंने भी प्रति