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अध्याय २५: मेरी दुविधा
यह उथल-पुथल तो तभी से चल रही थी, जब में कानूनका अध्ययन कर रहा था। मैंने अपनी यह कठिनाई अपने एक-दो मित्रोंके सामने रक्खी । एकने कहा, दादाभाईकी सलाह लो। यह पहले ही लिख चुका हूं कि मेरे पास दादाभाईके नाम एक परिचय-पत्र था । उस पत्रका उपयोग मैंने देरसे किया । ऐसे महान् पुरुष से मिलने जानेका मुझे क्या अधिकार है ? कहीं यदि उनका भाषण होता तो मैं सुनने चला जाता और एक कोने में बैठकर प्रांख-कानको तुप्त करके वापस लौट आता । उन्होंने विद्यार्थियोंके संपर्क में लाने के लिए एक मंडलकी भी स्थापना की थी । उसमें में जाया करता । दादाभाईकी विद्यार्थियों के प्रति चिता और दादाभाईके प्रति विद्यार्थियोंका आदर भाव देखकर मुझे बड़ा आनंद होता । आखिर हिम्मत बांधकर एक दिन वह पत्र दादाभाईको दिया। उनसे मिला। उन्होंने कहा- 'तुम जब कभी मिलना चाहो और सलाह मशविरा लेना चाहो, जरूर मिलना ।' लेकिन मैंने उन्हें कभी तकलीफ न दी । बगैर जरूरी कामके उनका समय लेना मुझे पाप मालूम हुआ । इसलिए, उस मित्रकी सलाहके अनुसार, दादाभाईके सामने अपनी कठिनाइयोंको रखनेकी मेरी हिम्मत न हुई ।
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उसी अथवा और किसी मित्रने मुझे मि० ग्रेडेरिक पिकटसे मिलने की सलाह दी । मि० पिंकट कंजरवेटिव दलके थे, लेकिन भारतीयोंके प्रति उनका प्रेम निर्मल और निःस्वार्थ था । बहुत से विद्यार्थी उनसे सलाह लेते । इसलिए मैंने एक पत्र लिखकर मिलनेको समय मांगा। उन्होंने मुझे समय दिया । मैं मिला । यह मुलाकात में आजतक न भूल सका । एक मित्रकी तरह वह मुझसे मिले । मेरी निराशाको तो उन्होंने हंसकर ही उड़ा दिया - " तुम क्यों ऐसा - मानते हो कि हर आदमीके लिए फीरोजशाह होना जरूरी है ? फीरोजशाह
बदरुद्दीन तो विरले ही होते हैं । यह तो तुम निश्चय जानो कि एक मासूली मनुष्य प्रामाणिकता तथा उद्योगशीलतासे वकालतका पेशा अच्छी तरह चला सकता है । सब-के-सब मुकदमे कठिन और उलझे हुए नहीं होते । अच्छा, तुम्हारा सामान्य ज्ञान कैसा - क्या है ? "
मैंने उसका जब परिचय दिया तब मुझे वह कुछ निराश से मालूम हुए। किंतु वह निराशा क्षणिक थी। तुरंत ही फिर उनके चेहरेपर एक हंसी की रेखा