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उपपत्ति:
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उपमा
उपपत्तिः:- एक नाट्यालङ्कार । अर्थसिद्धि के लिए हेतु के उपन्यास को उपपत्ति कहते हैं-उपपत्तिर्मता हेतोरुपन्यासोऽर्थसिद्धये । यथा, ना.न. के निम्न पद्य में नायक जीमूतवाहन सर्प की माता की प्राणरक्षारूप अर्थसिद्धि के लिए 'रक्षात्मानं ममासुभिः ' रूप हेतु का उपन्यास करता है - म्रियते म्रियमाणे या त्वयि जीवति जीवति । तां यदीच्छसि जीवन्तीं रक्षात्मानं ममासुभिः ।। (6/219)
उपमा - एक अर्थालङ्कार । अनेक अर्थालङ्कारों का उपजीव्य होने के कारण यह उनमें प्रधान है। एक ही वाक्य में दो पदार्थों के विधर्मरहित साम्य को उपमा कहते हैं-साम्यं वाच्यमवैधर्म्यं वाक्यैक्य उपमा द्वयोः । लक्षणवाक्य में 'वाच्य' पद के उपादान से रूपक, दीपक आदि से उसका भेद प्रतिपादित किया गया है, जहाँ वाक्य व्यङ्ग्य होता है। 'अवैधर्म्य' पद के प्रयोग से व्यतिरेक से इसका भेद प्रदर्शित किया गया है, वहाँ वैधर्म्य का भी कथन होता है। उपमेयोपमा में दो वाक्य होते हैं, 'वाक्यैक्य' पद के प्रयोग से इससे उपमा का वैशिष्ट्य प्रकट होता है। अनन्वय में साम्योक्ति एक ही पदार्थ में होती है, 'द्वयो:' पद का प्रयोग उपमा को अनन्वय से विशिष्ट करता है। इसका उदाहरण है- मधुर : सुधावदधरः, पल्लवतुल्योऽतिपेलवः पाणिः। चकितमृगलोचनाभ्यां सदृशी चपले च लोचने तस्याः ||
यदि उपमा में सामान्यधर्म, औपम्यवाची शब्द, उपमेय और उपमान ये चारों वाच्य हों तो वह पूर्णा उपमा होती है । श्रौती और आर्थी दो प्रकार की पूर्णोपमा तद्धित, समास अथवा वाक्य में स्थिति के आधार पर पुनः तीन - 2 प्रकार की होने के कारण छह प्रकार की हो जाती है। सामान्य धर्म आदि किसी एकं, दो अथवा तीन के लुप्त होने पर लुप्तोपमा होती है। इसके इक्कीस भेद हैं-दस प्रकार की सामान्यधर्मलुप्ता, दो प्रकार की उपमानलुप्ता, दो प्रकार की वाचकशब्दलुप्ता, दो प्रकार की सामान्यधर्म उपमानलुप्ता, दो प्रकार की सामान्यधर्म वाचकशब्दलुप्ता तथा उपमेयलुप्ता, सामान्यधर्मोपमेयलुप्ता और त्रिलुप्ता । इस प्रकार उपमा के कुल सत्ताईस भेद निष्पन्न होते हैं।
उपमा के जिन भेदों में साधारणधर्म लुप्त नहीं होता, वहाँ कहीं तो वह उपमेय और उपमान में एकरूप होता है, यथा- मधुरः सुधावदधर : इत्यादि