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उद्वेगः
उद्भेदः
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उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं- उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये । इनमें आलम्बन की चेष्टायें आदि तथा देशकाल आदि का समावेश होता है - आलम्बनस्य चेष्टाद्या देशकालादयस्तथा । चेष्टाद्याः में आदि पद से उसका रूप अलङ्करण आदि तथा 'कालादयः' में आदि पद से चन्द्रमा, कोकिलों का आलाप तथा भ्रमरों की झङ्कार आदि का ग्रहण होता है। (3/139-40)
उद्भेदः -मुखसन्धि का एक अङ्ग । बीजभूत अर्थ के प्रकट हो जाने को उद्भेद कहते हैं- बीजार्थस्य प्ररोहः स्यादद्भेदः । यथा - वे.सं. में "नाथ पुनरपि त्वया समाश्वासयितव्या", द्रौपदी के इस प्रकार कहने पर भीम के "भूयः परिभवक्लान्तिलज्जाविधुरिताननम् । अनिःशेषितकौरव्यं न पश्यसि वृकोदरम्।।" इस कथन से बीज का प्ररोहण हुआ है, अतः यह उद्भेद नामक मुखसन्ध्यङ्ग है। (6/78)
उद्यम:-एक नाट्यालङ्कार । कार्य का आरम्भ करने को उद्यम कहते हैं - कार्यस्यारम्भ उद्यमः । यथा कुम्भ नाटक में रावण की, 'पश्यामि शोकविवशोऽन्तकमेव तावत्', यह उक्ति। (6/213)
उद्वेग :- पूर्वराग में काम की पञ्चम दशा । प्रिय से समागम न हो पाने के कारण कहीं मन न लगना उद्वेग कहा जाता है । यथा - श्वासान्मुञ्चति भूतले विलुठति त्वन्मार्गमालोकते, दीर्घं रोदिति विक्षिपत्यत इतः क्षामां भुजावल्लरीम्। किञ्च प्राणसमान कांक्षितवती स्वप्नेऽपि ते सङ्गमं, निद्रां वाञ्छति न प्रयच्छति पुनर्दग्धों विधिस्तामपि । । इस पद्य में उद्विग्न नायिका की मन:स्थिति का वर्णन है । (3/195)
उद्वेग :- गर्भसन्धि का एक अङ्ग । राजा आदि से उत्पन्न भय को उद्वेग कहते हैं - नृपादिजनिता भीतिरुद्वेगः परिकीर्तितः । इसका उदारहण वे.सं. का यह पद्य है-प्राप्तावेकरथारूढ़ पृच्छन्तौ त्वामितस्ततः । स कर्णारिः स च क्रूरो वृककर्मा वृकोदरः ।। (6/107)
उद्वेग :- शिल्पक का एक अङ्ग । अपने बान्धवों के वियोग से उत्पन्न होने वाला क्लेश उद्वेग कहा जाता है। (6/295)