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________________ 36 उदात्तम उत्प्रेक्षा यथा अ.शा. में दुष्यन्त के प्रति शार्ङ्गरव की यह उक्ति-राजन्! अथ पुनः पूर्ववृत्तान्तमन्यसङ्गाद् विस्मृतो भवान्, तत्कथमधर्मभीरोर्दारपरित्यागः। (6/215) उत्प्रेक्षा-एक अर्थालङ्कार। उपमेय की उपमान के रूप में सम्भावना को उत्प्रेक्षा कहते हैं-भवेत्सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना। यथा-ज्ञाने मौन क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः। गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव।। यदि इसके मूल में कोई अन्य अलङ्कार हो तो वह अधिक चमत्कारक होती है। मन्ये, शङ्के, ध्रुवं, प्रायः, नूनम्, जाने आदि पद उत्प्रेक्षा के वाचक होते हैं। प्रधानरूप से यह वाच्या और प्रतीयमाना के रूप में दो प्रकार की होती है। जहाँ इवादि उत्प्रेक्षावाचक शब्दों का प्रयोग हो, वहाँ यह वाच्या तथा जहाँ इनका प्रयोग न हो वहाँ प्रतीयमाना होती है। पुनः वाच्योत्प्रेक्षा के 112 तथा प्रतीयमानोत्प्रेक्षा के 64 भेद मिलाकर इसके कुल 176 भेद निष्पन्न होते हैं। भ्रान्तिमान् अलङ्कार में उपमेय का ज्ञान ही नहीं होता परन्तु उत्प्रेक्षा में सम्भावना करने वाले को उपमेय के वास्तविक स्वरूप का भी ज्ञान रहता है। सन्देह में ज्ञान की दोनों कोटियाँ समकक्ष प्रतीत होती हैं परन्तु उत्प्रेक्षा में सम्भाव्य कोटि उत्कृष्ट रहती है। अतिशयोक्ति में उपमान पहले ज्ञात हो जाता है, फिर उसकी असत्यता प्रतीत होती है परन्तु यहाँ पहले से ही असत्यता ज्ञात रहती है। (10/58-59) उत्साहः-वीररस का स्थायीभाव। कार्यों के आरम्भ में उत्कट आवेश उत्साह है-कार्यारम्भेषु संरम्भः स्थेयानुत्साह उच्यते। यहाँ इसका एक विशेषण 'स्थेयान्' भी है, जिसका अर्थ है-स्थिरतर। यह धर्ममूलक है, अतः पूर्वप्रोक्त रति, हास, शोक और क्रोध के कामार्थमूलक होने के कारण उनकी अपेक्षा स्थिरतर है। (3/186) उदात्तम् -एक अर्थालङ्कार। लोकोत्तर सम्पत्ति के वर्णन में उदात्त अलङ्कार होता है। यदि महापुरुषों का चरित्र प्रस्तुत वस्तु का अङ्ग हो, तब भी यह अलङ्कार होता है-लोकातिशयसम्पत्तिवर्णनोदात्तमुच्यते। यद्वापि प्रस्तुतस्याङ्ग महतां चरितं भवेत्।। इन दोनों रूपों के उदाहरण क्रमशः इस
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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