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________________ हेतु: 225 हेतु: होना, मुख का विकसित होना आदि हैं। निद्रा, आलस्य, अवहित्त्था आदि इसके व्यभिचारीभाव हैं। इसका वर्ण श्वेत तथा देवता प्रमथ को माना गया है जो शिव के गण है - विकृताकारवाग्वेशचेष्टादेः कुहकाद् भवेत् । हासो हासस्थायिभावः श्वेतः प्रमथदैवतः। विकृताकारवाक्चेष्टं यमालोक्य हसेज्जनः । तमत्रालम्बनं प्राहुस्तच्चेष्टोद्दीपनं मतम् । अनुभावोऽक्षिसङ्कोचवदनस्मेरतादयः । निद्रालस्यावहित्त्थाद्या अत्र स्युर्व्यभिचारिणः । हास्य के आश्रयभूत नायक का कभी-कभी काव्य में साक्षात् उपनिबन्धन नहीं भी होता, केवल उसके आलम्बन और उद्दीपन ही वर्णित किये जाते हैं फिर भी विभावादि के सामर्थ्य से वह अर्थापत्ति के द्वारा उपलब्ध हो जाता है। पुनः उसके विभावादि के साथ साधारणीकरण करके सहृदय को हास्यरस की अनुभूति होती है। गुरोगिरः पञ्चदिनान्यधीत्य, वेदान्तशास्त्राणि दिनत्रयं च । अमी समाघ्राय च तर्कवादान् समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः । । इस पद्य में कुक्कुटमिश्र महोदय हास्य का आलम्बन हैं। इसका परिपाक लटकमेलकम् आदि नाटकों में हुआ है। हास्य के छः भेद हैं- स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित और अतििहसित। ( 3/219-22) हेतु :- एक नाट्यलक्षण । संक्षेप में कहा हुआ वाक्य जहाँ हेतु का प्रदर्शन करता हुआ अभिमत अर्थ को साधित करे उसे हेतु कहते हैं- हेतुर्वाक्यं समासोक्तमिष्टकृद्धेतुदर्शनात् । यथा - वे.सं. में चेटी का यह कथन एवं मया भणितं युष्माकममुक्तेषु केशेषु कथं देव्याः केशाः संयम्यन्ते । यहाँ देवी द्रौपदी के केशसंयमन का हेतु भानुमती आदि कुरुस्त्रियों के केशों का मुक्त होना है। (6/175) , हेतुः–एक अर्थालङ्कार। हेतु और हेतुमान् का अभेदकथन हेतु अलङ्कार होता है - अभेदेनाभिधा हेतुर्हेतोर्हेतुमता सह । यथा - तारुण्यस्य विलासः समधिकलावण्यसम्पदो हासः । धरणितलस्याभरणं, युवजनमनसो वशीकरणम्।। इस पद्य में वशीकरण की हेतु नायिका को वशीकरण ही कह दिया गया है। (10/83)
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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