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व्यञ्जनासिद्धिः
व्यञ्जनासिद्धिः से रामादि के अनुराग का ज्ञान तथा पुन: द्वितीय अनुमान (अयं सामाजिक: शृङ्गाररसवान् रामादिगतानुरागज्ञानवत्त्वात्, सामाजिकान्तरवत्) से रसादि की अनुमिति भी सम्भव नहीं क्योंकि इसकी व्याप्ति, यत्र यत्र रामादिगतानुरागज्ञानं तत्र तत्र रसोत्पत्तिः, भी सर्वथा निर्दुष्ट नहीं है क्योंकि रामादि के अनुराग का ज्ञान प्राप्त करके भी संस्कारहीन लोग रसानुभूति नहीं कर पाते तथा रङ्गभवन में काष्ठकुड्याश्म के समान स्थित रहते हैं।
इसके अतिरिक्त आचार्य महिमभट्ट ने जो भ्रम धार्मिक० आदि पद्यों में प्रतीयमान वस्तु तथा जलकेलि० इत्यादि पद्यों में रूपकालङ्कारादि की अनुमेयता प्रतिपादित की है, वह भी युक्तियुक्त नहीं है। उनका यह अभिप्राय है कि लिङ्ग (हेतु) से लिङ्गी (साध्य) का ज्ञान करना ही अनुमान है परन्तु यह लिङ्ग पक्ष (सन्दिग्धसाध्यवान् यथा पर्वत) तथा सपक्ष (निश्चित साध्यवान् यथा महानस) में अवश्य वर्तमान रहता है परन्तु विपक्ष (निश्चित साध्याभाववान् यथा सरोवर) में उसका अभाव रहता है। दूसरी ओर वाच्य से सर्वथा असम्बद्ध अर्थ भी प्रतीत नहीं होता, अन्यथा तो अतिप्रसङ्ग ही उपस्थित हो जायेगा। अत: बोध्य और बोधक में कोई न कोई सम्बन्ध अवश्य रहता है। इस प्रकार बोधक अर्थ लिङ्ग अर्थात् हेतु हुआ और बोध्य अर्थ उसका साध्य। इस हेतु का पक्षसत्त्व तो प्रतिपादित किया ही, सपक्षसत्त्व
और विपक्षव्यावृत्ति यदि न भी प्रतिपादित हो तो सामर्थ्यवश उनका आक्षेप किया जा सकता है। इसलिए वाच्यार्थरूप हेतु से व्यङ्ग्यार्थरूप साध्य का अवगम अनुमान में ही पर्यवसित होता है। इस प्रक्रिया से भ्रम धार्मिक० आदि पद्य में व्यङ्ग्यार्थ के अनुमान की प्रक्रिया यह होगी-धार्मिकः सिंहवद् गोदावरीतीराभ्रमणवान्, भीरुभ्रमणवत्त्वात्, अन्यभीरुवत्। इसकी व्याप्ति यह होगी-यद्यद्भीरुभ्रमणं तत्तद्भयकारणानुपब्धिपूर्वकम्। परन्तु इस प्रक्रिया में हेतु के अनैकान्तिक होने के कारण यह वस्तुतः हेत्वाभास है। गोदावरी के किनारे धार्मिक के भ्रमण का निषेध इसलिए अनुमेय होता है कि वह भीरु है परन्तु भीरु व्यक्ति भी गुरु अथवा प्रभु की आज्ञा से अथवा प्रियादि के अनुराग से भययुक्त स्थल पर जाता ही है और फिर सिंहोपलब्धि कुलटा का वक्तव्य है जिसका प्रामाण्य असन्दिग्ध नहीं है। इसलिए यह अनुमान सिद्ध नहीं होता।