________________
व्यञ्जनासिद्धिः
185
व्यञ्जनासिद्धिः
ये दानों कार्य युगपत् भी नहीं हो सकते क्योंकि विभावादि कारण और रसादि उसके कार्य हैं। इसका प्रमाण भरतमुनि का प्रसिद्ध रससूत्र हैविभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति: । कार्यकारण की स्थिति दायें और बायें सींग की तरह युगपत् नहीं हो सकती, अतः यह मत भी श्रद्धेय नहीं है।
गङ्गायां घोषः इत्यादि स्थलों में लक्षणा सामीप्यसम्बन्ध से तटरूप अर्थ का बोध कराकर विरत हो चुकी है, अतः शैत्यपावनत्वादि प्रयोजन के बोध के लिए चतुर्थ वृत्ति को स्वीकार करना आवश्यक ही है। दूसरे, अभिधा और लक्षणा पूर्वसिद्ध वस्तु का ही बोध कराती हैं। गङ्गा पद के अभिधेय और लक्ष्य जलप्रवाह और तटरूप दोनों ही अर्थ पूर्वतः सिद्ध हैं परन्तु रस पद का प्रतिपाद्य कोई पदार्थ प्रमाणसिद्ध नहीं है, यह केवल रसनात्मक व्यापार का ही बोधक है - प्रागसत्त्वाद्रसादेन बोधिके लक्षणाभिधे। तीसरे, रसादि की प्रतीति में मुख्यार्थ का बाध भी नियत नहीं है परन्तु लक्षणा तभी होती है जब पदों के सङ्केतित अर्थ का अन्वय उपपन्न नहीं हो पाता। जल प्रवाह घोष का अधिकरण नहीं हो सकता, अतः लक्षणा से तटरूप अर्थ उपस्थित होता है परन्तु शून्यं वासगृहम् आदि में मुख्यार्थ का बाध ही नहीं होता यहाँ लक्षण की सम्भावना नहीं है - किञ्च मुख्यार्थबाधस्य विरहादपि लक्षणा (न बोधिका) । इसके समर्थन में उदयनाचार्य की न्या. कु. से एक कारिका उद्धृत की जाती है - श्रुतान्वयादनाकांक्षं न वाक्यं ह्यन्यदिच्छति । पदार्थान्वयवैधुर्यात्तदाक्षिप्तेन सङ्गतिः ।।
अतः
गङ्गायां घोषः इत्यादि स्थलों में प्रयोजन को यदि लक्ष्य माना जाये तो फिर तीर को गङ्गापद का मुख्यार्थ मानना होगा । पुनः उस मुख्यार्थ का बाध भी होना चाहिए जबकि ये दोनों ही स्थितियाँ लागू नहीं होतीं । पुनः प्रयोजनवती लक्षणा का कुछ न कुछ प्रयोजन भी अवश्य होता है, शैत्यपावनत्व की प्रतीति यदि लक्ष्य है तो उसका प्रयोजनान्तर भी अवश्य होना चाहिए। वह प्रयोजन भी यदि लक्ष्य हो तो उसके किसी अन्य प्रयोजन की भी सम्भावना करनी होगी, इस प्रकार अनवस्था ही उत्पन्न हो जायेगी ।
अतः
गङ्गा पद की प्रयोजनविशिष्ट तीर अर्थ में लक्षणा भी नहीं हो सकती