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विच्छित्तिः
विदूषकः यथा-प्रणमत्युन्नतिहेतोर्जीवितहेतोर्विमुञ्चति प्राणान्। दु:खीयति सुखहेतोः को मूढः सेवकादन्यः।। इस पद्य में सेवक के द्वारा उन्नति के लिए प्रणाम, जीवन के लिए प्राणत्याग तथा सुख के लिए दुःखप्राप्तिरूप वैचित्र्य का अनुष्ठान किया जाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। (10/93)
विच्छित्तिः-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। कान्ति को बढ़ाने वाली थोड़ी सी वेषरचना विच्छित्ति कही जाती है-स्तोकाऽप्याकल्परचना विच्छित्तिः कान्तिपोषकृत्। यथा-स्वच्छाम्भःस्नपनविधौतमङ्गमोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो विलासिनीनाम्। वासस्तु प्रतनु विविक्तमस्त्वितीयानकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्यः।। (3/116)
विट:-नायक का सहायक। भोगविलास में नष्ट सम्पत्ति वाला, धूर्त, नृत्यादिकलाओं के एक अंश को जानने वाला, वैश्याओं के साथ उपचार में कुशल, वाणी में कुशल, मधुरभाषी तथा गोष्ठी में सम्मानित होने वाला पुरुष विट कहलाता है-सम्भोगहीनसम्पद्विटस्तु धूर्तः कलैकदेशज्ञः। वेशोपचारकुशलो वाग्मी मधुरोऽथ बहुमतो गोष्ठ्याम्।। यह नायक का मध्यम कोटि का सहायक माना जाता है-मध्यौ विटविदूषको। यह शृङ्गार में नायक की सहायता करता है। (3/49)
वितर्क:-एक व्यभिचारीभाव। सन्देह से उत्पन्न होने वाले विचार का नाम तर्क है। इसमें भ्रुकुटिभङ्ग तथा शिर और अङ्गुलियों का नचाना आदि अनुभाव होते हैं-तर्को विचारः सन्देहाद् भ्रूशिरोङ्गुलिनर्तकः। यथा-किं रुद्धः प्रियया कदाचिदथवा सख्या ममावेजितः। किं वा कारणगौरवं किमपि यन्नाद्यागतो वल्लभः। इत्यालोच्य मृगीदृशा करतले विन्यस्य वक्त्राम्बुजम्, दीर्घ निश्वसितं चिरं च रुदितं क्षिप्ताश्च पुष्पम्रजः।। यहाँ विरहोत्कण्ठिता नायिका प्रिय के न आने के कारणों के विषय में वितर्क करती हुई वर्णित की गयी है। (3/181)
विदूषकः-नायक का सहायक। यह राजा का मध्यम कोटि का सहायक माना गया है-मध्यौ विटविदूषको। यह मुख्य रूप से शृङ्गार में राजा की सहायता करता है। इसका नाम किसी पुष्प अथवा वसन्तादि पर रखा जाता है। अपनी असम्बद्ध क्रियाओं, विकृत अङ्गों, विकृत वेश तथा भाषा